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-स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
[ १५९
नम्विदं स्वविकल्प जल्पमात्र, अस्लमो छ योगेन स्वावच्छेदकावच्छेदेन जनितेन शब्देन दशदिक्षु निमित्तपवनतारतम्ये कदम्बगोलकन्यायेन तार-मन्दादिरूपा दश शब्दा आरभ्यन्ते, निमित्तपवनाऽतारतम्ये तु दशदिक्षु वीचीतरजन्यायेनेक एव शब्द आरभ्यते, एवं तैरपि वा शब्दान्तरास्भक्रमेण श्रोत्रप्राप्तेः सुघटत्वाद् नानुपपत्तिरिति येत् ? नन्वेवं 'बाणादयोऽपि पूर्वपूर्व समानजातीय क्षणप्रभवा अन्या एव लक्ष्येणाभिसंबध्यन्ते' इति किं नाभ्युपगम्यते ? । 'प्रत्यभिज्ञानाद् बाणादौ स्थायित्वसिद्धेयं कल्पनेति चेत् शब्देऽपि तर्हि मा भूदियम्, तत्राप्येकत्वमाहिण: प्रत्यभिज्ञानस्य 'देवदत्तोश्चारित एवायं शब्दः श्रूयते' इत्येवमाकारेणोपजायमानस्या बाधितत्वात् ।
के वक बहाव की दशा में शब्द की जो अस्पष्ट प्रतीति होती है उस सब की अनुपपत्ति होगी, safe as as vs के जन्मस्थान में जाता है तो वह ठीक वहीं पहुँचेगा क्योंकि मनुषात, प्रतिमाल किंवा तिर्यग्वात से श्रोष का कोई उपकार अथवा अपकार सम्भव नहीं है ।
शब्द ही श्रोष देश में जाता है यह द्वितीय पक्ष भी समीचीन नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में शब्द की सयितः स्वयं स्वीकार कर लेने से उस की द्रव्यरूपता की सिद्धि का पथ प्रशस्त एवं निष्कंटक हो जाता है ।
[ शब्दान्तरारम्भवाद से श्रवणप्राप्ति - नैयायिक ]
नैयायिक की ओर से यदि यह कहा जाय कि " जैनों का उक्त कथन अपने कपोल for free का ही उद्गार है क्योंकि न्याय का मत इस से विपरीत है। उस का मत यह है कि त्रीणा आदि शब्दोत्पादक वाथ और आकाश का संयोग अपने अवच्छेदक देश - वीणा आदि के स्थितिदेश से अवच्छिन्न आकाश में जिस अथ शब्द को उत्पन्न करता है. उस से निमित्त भृत वायु के तारतम्य के अनुसार दिशाओं में एक ही साथ तार मन्द आदि दश शब्द ठीक उसी प्रकार उत्पन्न होते हैं जैसे कदम्ब के पुष्प में एक ही साथ दश दल उत्पन्न होते हैं, अथवा निमित्तमृत मायु का तारतम्य न होने पर दशों दिशाओं में एक ही शब्द उत्पन्न होता है। यह उत्पत्ति वीची तरल जैसी होती है। जैसे सरोवर में बेग से कङ्कर का प्रक्षेप करने पर एक बीची उठती है, जिस से क्रम से कई तर पर्याप्त दूरी तक उत्पन्न होती रहती हैं और प्रत्येक तरफ चारों ओर फैल्ली है उसी प्रकार श्रीणा आदि मे पहला शब्द उत्पन्न होने पर उस से क्रम से कई शब्द उत्पन्न होते हैं और प्रत्येक शब्द निमित्तभूत धायु के प्रसारानुसार दशों दिशाओं में प्रसृत होता है। दिशाओं में उस का प्रसार उस के अद्रश्य होने से संयोगात्मक न होकर स्वरूपात्मक होता है । स्वरूपात्मक होने का अर्थ है एक शब्द का दश दिशाओं के साथ स्वरूप सम्बन्ध । आय शब्द से उत्तर शब्द उत्पन्न होने पर क्रम से पूर्व पूर्व शब्द से उत्तरोत्तर शब्द की उत्पत्ति के कम से आध शब्द का सजातीय शब्द श्रोता के कर्णाकाश में उत्पन्न होकर श्रोत्र समवाय सन्निकर्ष द्वारा श्रोता से गृहीत होता है, अतः शब्द के अद्रव्यत्व पक्ष में भी शब्द के जन्मस्थल में दूरस्थ ओता करे उस के श्रवण की अनुपपत्ति नहीं हो सकती । "
[ चाणादि द्रव्य में क्षणिकत्वापत्ति - जैन ]
नैयायिकों के इस कथन के प्रतिवाद में व्याख्याकार का यह कहना है कि शब्द क्षणिक होते हुए भी जिस रीति से अपने जन्मस्थल से दूर स्थान में भी कार्य करता है। उस रीति