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________________ ॐ अहं 5 हिन्दीविवेचनालंकृत स्याद्वादकल्पताव्याख्याविभूषितः 卐 शास्त्रवार्तासमुच्चयः॥ [ नवमः स्तबकः ] ( व्याख्यामंगलाचरणम् ) प्रणतान प्रति नितिश्रिया स्वहृदो राग इव स्फुटीकृतः । त्रिशलातनयस्य संपदे पदयोः पाटलिमा नखल्विाम् ॥१॥ अपि स्वपित्ति विद्विषां ततिरपायरात्रिचरः प्रणश्यति यदाख्यया पठितसिद्धया विद्यया । स्तवप्रवणता स्वतः सततमस्य शङ्खेश्वरप्रमोश्चरणपङ्कजे भवति कस्य धन्यस्य न? ॥२॥ [ भगवान महावीर के चरणों की नख-कान्ति का संस्तव ] त्रिशला के तनय भगवान महावीर के चरणों को नख-कान्ति को लालिमा मानो उनके मोक्ष. लक्ष्मी के साथ हुदय का राग-स्नेह है, जो प्रणत जनों के प्रति (भगवान् को प्रसन्नता-श्री द्वारा उन्हें) मोक्ष सम्पत्ति यानी अात्मवभव प्रदान करने को प्रकट हुमा है। आशय यह है कि मक्तजन मगवान् के सन्मुख इस माशा और विश्वास से प्रणत होते हैं कि भगवान के प्रसाद अर्थात प्रभाव से उन्हें मोक्षसम्पत सुरभ हो सकेगी, अतः भगवान मानो उनको आशा और उनके विश्वास के अनुरूप उनके अभिमुख अपने हार्दिक राग को सुप्रसन्न होकर प्रकट करते हैं, फिन्तु अन्य के हृदय का राग अन्य को अमूर्तरूप में दृष्टिगत नहीं हो सकता अत: वे उसे अपने चरणों के नख-कान्ति को लालिमा के रूप में भक्तों के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं, भक्त भी अपनी भावुकता के बल उस लालिमा को भौतिक लालिमा के रूप में न ग्रहण कर अपने प्रति भगवान् के हृदय के रमणीय राम के रूप में प्रहण करते हैं। ध्याख्याकार ने भगवान् के चरणों के नख- कान्ति की वास्तव लालिमा को उनके हृदयराग के रूप में उत्प्रेक्षित कर अपनो अनुपम भक्ति का द्योतन किया है और साथ ही भगवान् की अप्रतिम कृपालुता का प्रदर्शन भी किया है ।।१।।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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