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[ ६३
स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
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स्वादेतद् अनभ्यासदशायां प्रामाण्यसंदेहादपि प्रवृत्तेः किं प्रामाण्यनिश्चयप्रयोजनम् ? इति । तत्र वदन्ति तद्विपयसंशयापगम एव प्रयोजनम् इति कि प्रयोजनान्तरनिरूपणप्रयासेन ! तत्मयोजन किम् ? इति चेत् अभ्यास एव 'संदेहात् प्रवर्तमानस्य कथं प्रेक्षावत्त्वं स्यात्' इति चेत् ? न कथञ्चित्, चाचरणक्षयोपशमाऽऽसादितप्रेक्षावद्व्यपदेशस्यापि संदेहादिदशायां तदभावादतथाच्यपदेशात् । उक्तं च
" प्रेक्षवत्ता पुनर्ज्ञेया कस्यचित् कुत्रचित् क्वचित् । अप्रेक्षाकारिताप्येवमन्यत्राशेषवेदिनः ॥ १ ॥ इति । अयं भावः--तृणारण्यादिस्थले बह्नाविव प्रामाण्यसंशय - निश्चयस्थले प्रवृत्तौ विशेषाऽदर्शनाद् विशिष्य प्रवृत्तौ तयोर्हेतुत्वं न कल्प्यते चेत् तथापि पक्षावरणक्षयोपशमभावाऽभावाभ्यामर्थतस्तयोः प्रेक्षावदप्रेक्षावत्प्रवृत्तित्वविशेषोऽनिवारित एव । न च सम्पत्व - निष्कम्पत्वयोः प्रवृत्तिगतविशेषधर्मयोरनुभवात् तदवच्छिन्नयोरेव हेतुत्वमिति निरवद्यम् : कम्पा- कम्पयोरपि फलानवश्यंभावसंभावनाजनितभय- तदभावनिमित्तत्वात् स्वाभाविकविशेषाऽसिद्धेः ।
है । जैसे, इष्टसाधनता का त्वरित ज्ञान होने पर स्वरित प्रवृत्ति हो सकती है। अतः प्रवृत्ति में प्रामाण्यज्ञान का कहीं कोई उपयोग नहीं है और यदि कदाचित् कहीं उपयोग होता हो भी, तो प्रामाण्य के स्वतः ज्ञान में प्रवृत्ति का ऐसा पक्षपात नहीं हो सकता कि वह प्रामाण्य के स्वतः ज्ञान से ही हो, परत: ज्ञान से न हो ।
[ ग्रामाण्यनिश्चय का प्रयोजन
प्रामाण्यग्रहण की उक्त द्विविध व्यवस्था मानने
संशयहास ]
पर प्रामाण्य के परतः ग्रहण पक्ष के सम्बन्ध में यह प्रश्न हो सकता है कि अनभ्यासदशा में प्रामाण्य का सन्देह रहते हुये भी जब प्रवृत्ति हो सकती है तब बाद में सफल प्रवृत्तिरूप लिङ्ग से पूर्वशान में प्रामाण्य का निश्चय आवश्यक मानने का क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्न के उत्तर में विद्वानों का कहना है कि पूर्वज्ञान में प्रामाण्यसंशय की निवृत्ति करना ही उस का प्रयोजन है, अतः उस से भिन्न किसी प्रयोजन के अन्वेषण का प्रयास निरर्थक है ।
यदि यह पूछा जाय कि 'पूर्वज्ञान में प्रामाण्यसंशय की निवृत्ति का क्या प्रयोजन है ? ' तो इस का उत्तर यह है कि उसका प्रयोजन है अभ्यास अभ्यास का अर्थ है ज्ञान के अनन्तर होनेवाले उस के विषयभूत पदार्थ के सजातीय विषय को ग्रहण करनेवाले ज्ञान में निश्चितप्रामाण्य के ज्ञान के सजातीयत्व का निश्चय । स्पष्ट है कि यह निश्चय पूर्वज्ञान में प्रामाण्य के निश्रय के बिना नहीं हो सकता क्योंकि उक्त सजातीयस्वरूप विषय की कुक्षि में पूर्वज्ञान गत प्रामाण्यनिश्चय समाविष्ट है ।
[प्रेक्षावत्ता हानि की शंका का उत्तर ]
यदि यह प्रश्न हो कि सन्देह से प्रवृत्त होनेवाला मनुष्य प्रेक्षावान - विवेकशील कैसे कहा जा सकेगा ? तो इस का उत्तर यह है कि कथमपि नहीं। क्योंकि प्रेक्षावान् शब्द से उसी मनुष्य का व्यपदेश होता है जिस के प्रेक्षावरण का क्षयोपशम हो जाता है। सन्देह दशा में प्रेक्षावरण का क्षयोपशम न होने से उस दशा में प्रेक्षावान का व्यपदेश न हो इस में कुछ भी असंगति नहीं है । कहा भी गया है कि अशेषवेदी- सर्वज्ञ से भिन्न पुरुषों में कोई पुरुष, किसी