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[ शाम्रधाः सत१०२५.
तदुपस्थितिरपि तत्राऽतन्त्रम् , क्षयोपशमेन ज्ञानप्रत्यासत्य यथासिद्धेः, तथाविधोपस्थित्यादिनियामकादेव कार्यनियमसिद्धेः “तद्धतोः" इत्यादिन्यायात् । अत एव श्रुतनिश्रितादिमतिज्ञानव्यवस्थापि संगता, तत्र श्रुतानुसारानपेक्षणादित्यन्यत्र विस्तरः । अथ झटिति प्रचुरा च तथाविधा प्रवृत्तिरन्यथानुपपद्यमाना स्वतःभामा प्वज्ञमिमाक्षिपतीति वेत ? न, अन्यानोपपरियोपरताज्ञानादेझटिति सिद्ध्यादिनैव झटिति प्रवृत्त्यादिसंभवात् , तत्र प्रामाण्यग्रहस्य क्वचिदष्यनुपयोगात् , उपयोगे वा 'स्वतः' इति पक्षपाताऽयोगात् ।
[अभ्यास दशा में इष्टसाधनता बुद्धि की प्रामाण्यग्रह में समानता] यह ज्ञातव्य है कि अभ्यासदशापन्न झान में उक्त रीति से प्रामाण्य निश्चय की कल्पना कोई नितान्त नधीन कल्पना नहीं है, क्योंकि इष्टसाधनता के अनुभव का इसी रीति से उदय देखा जाता है। जैसे किसी वस्तु में अन्वय-व्यतिरेक आदि लिङ्ग से इष्टसाधनता का अनुभव होने के अनम्तर उस वस्तु को देखते ही उस में इष्टसाधनता का अनुभव उस अनुभराभ्यास से उत्पादित श्नयोपशम से ही हो जाता है। वहाँ अन्वयव्यतिरेक आदि लिङ्ग की अपेक्षा नहीं होती। तो जैसे पूर्व में लिङ्ग आदि से गृहीन होनेवाली इष्टसाधनता का अनुभव कालान्तर में इधमाधनीभूत वस्तु का ज्ञान होते ही स्वत: हो जाता है, वैसे ही, पहले प्रामाण्य ज्ञान में लिङ्ग की अपेक्षा होने पर भी बाद में उस की अपेक्षा के बिना ही प्रामाण्य ग्रहण के आवरण के अभ्यासोत्पादित क्षयोपशममात्र से ही प्रामाण्य निश्चय की भी उत्पत्ति हो सकती है।
[कालान्तरमावि इष्टसाधनता का निश्चय अनुभवरूप ] यदि यह कहा जाय कि-' पूर्व में लिङ्ग से गृहीत इष्टसाधनता का कालान्तर में लिङ्ग की अपेक्षा किये बिना ही जो निश्चय उत्पन्न होता है वह अनुभव नहीं है किन्तु स्मृति है, '-तो यह टीक नहीं है, क्योंकि उस निश्चय का अनुभवत्वरूप से ग्रहण होता है, अतः उम में स्मतित्व बाधित है । इस सन्दर्भ में यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'पूर्शनुभूत इष्टसाधनता की स्मृतिरूप मानलक्षणाप्रत्यासत्ति से कालान्तर में इश्साधनसा का अनुभव होता है क्योंकि क्षयोपशम के विना स्मृति का भी उदय न होने से पूर्ववर्ती क्षयोपशम से स्मृतिरूप शानलक्षणाप्रत्यासति अन्यथासिद्धि है, क्योंकि 'ततोरेन सम्भये किं तेन जिस के हेतु मात्र से ही जो कार्य संभव है उस कार्य में उसकी खुद की क्या अपेक्षा ?' इस न्याय के अनुसार स्मृतिरूप ज्ञानप्रत्यासत्ति के हेतु क्षयोपशम से सम्माधित इटसाधनसा के अनुभव में उस से होनेवाली स्मृति को हेतु मानना असंगत है। उक्त न्याय के अनुसार ही *श्रुतनिश्रित-अश्रुतनिश्रित आदि मतिज्ञानों की भी व्यवस्था मंगत होती है, क्योंकि अभ्यास के बाद तत्सविषयक मतिशान में श्रुत की अपेक्षा नहीं होती, यह बात अन्यत्र विस्तार से णित है।
यदि यह कहा जाय कि-दछित वस्तु का शान होने पर उसे प्राप्त करने के लिये मनुष्य की त्वरित बलवती प्रवृति होती है. यह प्रवृत्ति इष्ट अस्तु के ज्ञान में स्वतः प्रामाण्यनिश्चय के यिना अनुपपन्न है, क्योंकि प्रामाण्य को परत: ग्राह्य मानने पर प्रवृत्ति का त्वरित उदय नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त प्रवृत्ति की उपपत्ति प्रकारान्तर से हो सकती
* अननिश्रित:-श्रुतशान के आधार से होनेवाले मतिज्ञान को श्रुतनिश्रित कहा जाता है, जो मतिज्ञान श्रुतावलम्भि नहीं होता उसे अश्रुतनिश्रित कहा जाता है ।