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ल्या. के. टीका-हिन्दीविवेचन ] समयभावित्वेनादृष्टत्यात्, तददर्शने च स्वभावत एव च्छाया-ऽऽतपयोरिव तयोः प्रत्यक्षेण विरोधाऽग्रहात्, प्रत्यक्षाऽप्रवृत्तौ चानुमानस्याऽप्रवृत्तः, तस्य प्रत्यक्षमूलत्वात् , आगमस्य च तद्विरोधप्रतिपादकस्याऽश्रवणात् , प्रत्युत तदविरोधपतिपादकस्यैव जागरुकत्वात् । न च वाद-विक्रिया-चारणादिलब्धिविशेषहेतुसंग्रमविशेषविरहे कथं तासां तदधिकमोक्षहेतुतत्सत्त्वम् ! इति वाच्यम् , लब्धिविशेपहेतुसंयमविरहस्य मोक्षहेतुसंयम विरहाऽव्याप्यत्वात् , माषतुपादीनां लब्धिबिशेषहेतुसंयमाभावेऽपि मोक्षहेतुतच्छवणात् , क्षायोपशमिकलब्धिविरहेऽपि क्षायिकलव्धेरप्रतिघातात् , अन्यथावधिज्ञानादिकमुपमृद्य केवलज्ञानस्याऽप्रादुर्भावप्रसन्नात् । आह - [ ]
"बादविंकुईणत्वादिलब्धिबिरहे श्रुते कनीयाँस च ।
जिनकल्प-मनःपर्ययविरहेऽपि न सिद्धिविरहोऽस्ति ॥ १।। " इति । एतेन 'स्त्रीणां वेद-मोहनीयाविकर्मणः पुरुषापेक्षया प्रबलत्वात् , प्रबलस्य च कर्मणः प्रयले.
की सम्भावना की जाय । स्पष्ट है कि जब रखकः शन नहीं होता तो या और आतप के समान उसमें और स्त्रीत्व में स्वभाषतः ही विरोध का प्रत्यक्ष अवधारण नहीं हो मकता ।
के सम्भव न होने पर अनुमान भी नहीं सम्भव हो सकता, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्षमूलक होता है। मागम से भी स्त्रीत्व और चारित्र प्रकर्ष का विरोध नहीं सिद्ध हो सकता. क्योंकि
विरोध का बोधक कोई आगम उपलब्ध नहीं है । अपित उन दोनों के अविरोध का प्रतिपादक ही आगम उपलब्ध है। यदि यह कहा जाय कि- 'उनमें जब बाद, विक्रिया, चारण
आदि लब्धि विशेष के हेनुभून संयमविशेष का अभाव होता है तो मोक्ष का हेतुभूत संयम विशेष जो उक्त संयम विशेष से अधिक है वह उनमें कैसे हो सकता है ?' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि लब्धिविशेष के हेतुभूत संयम का अभाय मोक्ष के तुभूत संयम के विरह का व्याप्य नहीं है, जिससे उक्त कथन का औचित्य हो सके।
यह भी ज्ञातव्य है कि लब्धिविशेष के हेनभत संयम के न होने पर भी मोक्षकारक संयम विशेष का सदभाव हो सकता है। जैसा कि-मापतवमनि आनि में लधिनिशेष के हेतभत संयम का अभाव होने पर भी मोक्ष के हेतुभूत सयम का सदभाव सुना जाता है. साथ ही यह भी तथ्य है कि क्षयोपशम जन्य लब्धि के अभाव में क्षयमूलक लब्धि की उत्पत्ति निर्वाध छै । यदि ऐसा न माना जायगा तो अयधिज्ञान आदि का अतिक्रमण करके भी जो केवलज्ञान का प्रादुर्भाष प्रमाणसिद्ध है वह न हो सकेगा । कहा भी गया है कि 'जब वाद-विकुर्वणन्य आदि लम्धि का अभाव होता है तथा श्रुतज्ञान अल्प होता है और जिनकल्प मनापर्यवशान का अभाव होता है तब भी केवलज्ञान की सिद्धि का अभाव नहीं होता ।'
[प्रचलकर्मता स्त्री-पुरुष साधारण] इस सन्दर्भ में क्षपणकों की ओर से एक यह भी बात कही जाती है कि- “स्त्रियों का येदमोहनीय आदि कर्म पुरुष के वेद मोहनीय आदि कम की अपेक्षा बलवान होते हैं । और प्रयल कर्म का नाश प्रबल अनुष्ठान से ही हो सकता है । यदि ऐसा न माना जायगा तो जिनकल्प आदि का उच्छेद हो जायगा । जिणकप्पिया...... इत्यादि आरम याक्य में स्त्री को जिनकल्प होने का निषेध किया गया है । अत: स्त्रियों में विशिष्ट चारित्र न होने से उनके प्रबल