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[ शासवार्ता स्त० ११:५४
नैवानुष्ठानेन क्षपणयोग्यत्वात् । अन्यथा जिनकल्पाचुच्छेदापत्तेः, स्त्रीणां च "जिणकप्पिया इन्थी ग हबइ ” इत्याद्यागमेन जिनकल्पनिषेधात् , विशिष्टचारित्राभावात् कथं प्रबलकर्मक्षपणम् , तदभावे च कथं मोक्षः ? ' इति निरस्तम् , पुरुषेभ्यः प्रबलकर्मत्वम्यैव स्त्रीणामसिद्धः, स्त्रीवेदस्य पंवेदापेक्षया प्राबश्ये ऽपि तस्य पुरुषेवप्यचाधितत्वात् , नरन्तण प्रज्वलनस्य चाऽनियतत्वात् ; कचित् स्त्रीत्वसहचरितदोषप्रायदयेऽपि क्वचित् पुंस्त्वसहचरितदोषप्रायत्यस्यापि दर्शनात् । अस्तु या पुरुषापेक्षया स्त्रीणां प्रथलकर्मस्वम् , तथापि तासां भाववैचिन्यादेव विचित्रकर्मक्षयः संभवी । नन्वेव विशिष्टविहारं विना भाववैचित्र्यसंभावनया जिनपिकादीनां जिनकल्पादौ प्रवृत्तिर्न स्यादिति चेत् ! न, शक्त्यनिगृहनेन संयमवीयोल्लास एव हि चारित्रं परिपूर्यते " जइ संजमे वि विरियं ण णिगहिज्जा ण हाविजा" इत्यागमात् । जिनकरुिपकादीनां च स्थविरकल्पापेक्षया विशिष्टमार्गे जिनकल्पादौ शक्तानां विपरीतशङ्कया तत्र शक्तिनिगहने चारित्रमेव हीयेत, कुतस्तरां तदतिरेकाधीनभाववैचित्यमाप्तिसंभावना ? ! स्त्रीणां तु विशिष्टमार्गे शक्तिरेव न, इति स्वीचामा निलमिर्तमानानां न नाम शक्तिनिगहनाधीना चारित्रहानिरस्ति । एवं चोत्तरोत्तरं चारित्रद्धिरेब तासां संभवति । इति भाववैचि-याधीनो विचित्रकर्मक्षयः । इदमेवाभिप्रेत्योक्तम्
कर्म की निवृत्ति कैसे हो सकती है ? और कर्म की निवृत्ति न होने पर उन्हें मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है।" -किन्तु यह बात भी निरस्त हो जाती है, क्योंकि पुरुष की अपेक्षा स्त्री में प्रचलकर्म का होना सिद्ध है । पुरुषवेद की अपेक्षा स्त्रीचेद के प्रबल होने पर भी पुरुष में प्रबलक में होने में कोई बाधा नहीं है । स्त्री में निरन्तर कामाग्नि प्रज्वलन का होना भी नियत नहीं है और यदि किसी व्यक्तिविशेष में स्त्रीत्व के साथ दोष की प्रबलता देखी जाती है तो किमी व्यक्तिविशेष में पुम्त्व के साथ भी दोष की प्रबलता देखी जाती है । यदि पुरुष की अपेक्षा स्त्री में प्रबलकर्म का मदभाय मान भी लिया जाय तो उससे कोई हानि नहीं हो सकती, क्योंकि स्त्री के भाव वैचिम्य से स्त्री के प्रयल फर्म की निवृप्ति हो सकती है ।।
[जिनकल्पी मुनियों की जिनकल्पनवृत्ति का उच्छेद संभव नहीं] यदि यह कहा जाय कि- 'भावयचिभ्य से प्रबल. कर्म का क्षय मानने पर विशिष्ट बिहार के बिना भी भाववैचित्र्य सम्भव होने से जिनकल्पी मुनियों की जिनकल्प आदि कठोर आचरण में प्रवृत्ति नहीं होगी' -तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि शक्ति का निग्रहन न होने पर संयमषीय के उत्कर्ष से ही चारित्र की पूर्णता हो जाती है। जैसा कि 'यदि संयमऽपि वीर्य न निगृहेदन हापयेत् 'यदि संयम के विषय में वीर्य का निगृहन न हो एवं उसकी हानि न हो' इस आगम वाक्य में प्रकट है। प्रश्न हो सकता है कि जिनकल्पिकादि मुनि में स्थविरकला की अपेक्षा जिनकल्प आदि विशिष्ट मार्ग में जाने की अधिक शक्ति होने पर भी किसी विपरीत शङ्का से यदि यह शक्ति का निदान करता है तो उसके चारित्र की ही हानि होगी, फिर उनमें चारित्र के आधिक्य से होने वाले भावचिध्य की सम्भावना कैसे हो सकती है? स्त्रीयों की बात अलग है, क्योंकि स्त्रियों में विशिघ्र मार्ग पर चलने की शक्ति ही नहीं होती । इमलिा. ये शक्ति का निगृहन न कर यदि अपने उचित चारित्र के लिए प्रवृत्त होती हैं तो उनमें शक्ति निग्रहन प्रयुक्त चारित्रशानि नहीं हो सकती । अपितु उत्तरोसर उनके चारित्र की वृद्धि होती