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स्था. क. टीका-हिन्दी यिवेचन ]
[३१९. "जिनवचनं जानीते श्रद्धचे चरति चार्यका शबलम् । नास्यास्त्यसंभवोऽस्या नादृष्टविरोधगतिरस्ति ।।१।।” इति ।
अथ ‘विप्रतिपन्नाऽयलाऽशेषकर्मक्षयनिबन्धनाध्यवसायविकला, अविद्यमानाध:सप्तमनरकप्राप्त्यविकलकारणकर्म बीजभूताध्यबसानत्वात् , यो नैव स नैवम् , यथा संप्रतिपन्नपुरुषः ' इति व्यतिरेकिण: स्त्रीषु मुक्तिहेत्वध्यवसायाभावः सिष्यतीति चेत् ? न, अबलातो निवर्तमामस्य यथोक्ताध्ययसानस्य मुक्तिहेस्वध्यबसायनिवर्तकत्वे तत्कारणत्वस्य तद्व्यापकत्वस्य वा तन्त्रत्वात् । आह च न्यायवादी
"तस्मात् तस्माद् न संबद्धः स्वभावो भावमेव बा ।
निवर्तयेत् कारणं वा कार्यमव्यभिचारतः ।। १ ॥ इति । न च तत्कारणत्वं तद्व्यापकत्वं वान्त्र संभवति, योगिनोऽपि यथोक्ताध्यवसानावश्यंभावे नरकप्राप्तिप्रसङ्गात् ; अन्यथा तदविकलकारणत्वाऽयोगात् । अपि च, नाधोगतिविपये मनोवीर्यपरिणतिवैषम्यदर्शनादूर्वगताबपि तद्वैषम्यं कल्पयितुं शक्यम् , येनोत्कृष्टाशुभमनोपीयपरिणतिविरहे उत्कृष्टशुभमनोवीर्यपरिणतिविर
है। अतः भाववैविध्य से उनके विचित्र कर्म का क्षय होना निर्विवाद हैं । हमी आशय से कहा गया है कि आर्या-माधी को जिनवचन का ज्ञान है और उस पर उसकी तदनुसार विचित्र आधरण भी करती है तो उसमें चारित असम्भव नहीं है, तथा अष्ट्र विरोध का प्रसङ्ग भी नहीं है।'
[सप्तमनरकमापक अध्यवसाय का अभाव अकिचित्कर] यदि खी मोक्ष के विरोध में यह कहा जाय कि- 'स्त्री में अशेष कर्मक्षय-मोक्ष का अभाव इस प्रकार के व्यतिरेकी अनुमान द्वारा सिद्ध है कि मोक्ष की अधिकारिणी होने न होने के संशय की विषयभूत श्री में, सम्पूर्ण कमी के क्षय के कारणभूत अध्यबसाय का अभाव है, क्योंकि उसमें से अध्यवसाय का अभाव है जो अधोगति में मातमनरक की प्राप्ति के अधिकल कारणभूत कर्म का बीजरूप हो, जिसमें मोक्ष के हेनभूत अध्यवसाय का अभाव नहीं होता उसमें उक्त प्रकार के कर्म के बीजभूत अध्यवसाय का अभाव भी नहीं होता, जैसा कि सम्प्रति. पन्न-- मुक्तिगामी पुरुष में सिद्ध है-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यह तभी हो सकता है जब उक्त कर्म के बीजभूत अध्यवसाय मोक्ष के हेतुभूत अध्यवमाय का कारण हो अथवा व्यापक हो । क्योंकि कारण की निवृत्ति से कार्य की निवृत्ति और व्यापक की निवृत्ति ले व्याप्य की निवृत्ति होती है।
न्यायवादी ने भी कहा है कि-'किसी अभाव से किसी अभाव का अनुमान करने में अनुमापक अभाव के प्रतियोगी में अनुमेय अभाव के प्रतियोगी की कारणता अथवा ध्याएकता ही प्रयोजक होता है अतः कारण और व्यापक जहाँ असम्बद्ध-अवृत्ति होता है वहाँ कम से कार्य और च्याप्य का निवर्तक होता है, क्योंकि कारणाभाव और ध्यापकाभाव में कार्याभाय और व्याप्याभाव का अव्यभिचार है ।' प्रकत में उक्तविध कर्म के बीजभूत अध्ययसान में अशेप. कर्मक्षय के कारणभूत अभ्यवसान की कारणता किंथा व्यापकता सम्भव नहीं है। क्योंकि योगी में सप्तमनरकायुबन्धोचित अध्यवसाय के न होने पर भी मुक्तिप्रापक अध्यवसाय होता है । यदि उसमें सप्तमनरकायुःवन्ध कारणभूत उक्तविध कर्म के बीजभूत अध्यवसान को अवश्य मानेंगे तो उसे नरकप्राप्ति की भापति अवश्य होगी, और यदि ऐसा न होगा तो उसमें नरक