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स्या. क. टीका-हिन्दीवियेचन ]
[१०७ जात्यतिक्रान्तप्रत्यक्ष प्रत्यषेधि, तदपि 'दृष्टजातीयचक्षुरादय एव सर्वे पुरुषाः' इति नियम ग्रहे शोमते, स एव चाऽसर्वज्ञस्य दुर्ग्रहः । दृश्यते च चक्षुरपे केषाश्चित् प्रभादिमन्त्रादिद्वारेण संस्कृतं कालविप्रकृष्टार्थग्राहकम्, मूधिका देतश्चरवपदंशादेश्चान्धकारखवाहितार्थग्राहकम्, अजनविशेषा दिसंस्कृत च केपाश्चित् कुड्यादिव्यवहितार्थग्राहकम् , दीपावतारादौ च समुद्र-सेना-नग-नगरादिग्राहकम् : तन्द यदि पुरुषविशेषस्यापि कस्यचिच्चक्षुरादि धर्मादरपि-देश-काल-स्वभावविप्रकृष्टस्य ग्राहकं भवति तदा को नाम दृष्टस्वभावातिक्रमः !; चक्षुःश्रवसों चक्षुषव शब्दश्रवणस्व प्रसिद्धत्वेन विषयातिक्रमस्याप्य
[यात्राप्यतिशयो....का निरसन] सर्वज्ञ के विरोध में एक और बात कही गई है वह यह कि, (पृ. १६) जिस किसी इन्द्रिय में अतिशय उत्कर्ष दया जाता है यह इन्द्रिय, देश और काल के विप्रकर्ष की उपेक्षा कर अपने ग्राम्य पदार्थों के मजातीरा सभी पदार्थों को तो महण कर सकती है किन्तु अपने उन्फर्ग में कारण यह अपने द्वारा ग्रहणयोग्य पदार्थों से विजातीयपदार्थों को नहीं ग्रहण करती । अग्लेअतिशययुक्त मंत्र पुरस्थ पदार्थ को एवं यतमान सामान सनील अथ JITA
सामान पदार्थ को देग्न सकता है, पर स, गन्ध आदि को नहीं देख सकता क्योंकि उन पदार्थों के ग्रहण में यह स्वभावतः अयोग्य है । यही स्थिति उन पुरुषों की भी हैं जो तप आदि से विशेष सामर्थ्य प्राप्त कर लेते हैं, ये भी प्रत्यक्षयोग्य पदार्थों का ही (देशकाट का विप्रकर्ष होने पर
र सकते हैं किन्तु जो पदार्थ स्वभावतः प्रत्यक्ष के अयोग्य है, उन का प्रत्यक्ष ये भी नहीं कर सकते - ___ उक्त कथन से धर्म, अधर्म आदि पदार्थ जो प्रत्यक्षविषय एवं प्रत्यक्षमाप्राति से शुन्य होने के कारण स्वभावतः प्रत्यक्ष के योग्य हैं उन के प्रत्यक्षज्ञान का प्रतिबंध कर धर्म-अधर्म आदि के द्रष्टा सर्वज्ञपुरुष के अस्तित्व का निराकरण किया गया है। किन्तु यह कथन भी तभी समीचीन हो सकता है जब यह नियम बात हो सके कि सभी पुरुष सामान्य पुरुष के चक्षु आदि इन्द्रियों के सदृश इन्द्रियों से ही सम्पन्न होने हैं। किन्तु यह नियम जो मर्पक्ष नहीं है, उसे ज्ञात नहीं हो सकता, क्योंकि असर्व श पुरुष संसार के सभी पुरुषों को और उन के चक्ष आदि इन्द्रियों को कैसे जान सकता है? प्रत्युत, उक्त नियम के विपरीत यह देखा जाता है कि कुछ पुरुषों का नेय प्रश्नादि और मन्त्र आदि से संस्कृत होकर देश-काट से विप्रकृष्ट वस्तु को भी ग्रहण करता है।
पुरुषविशेष की बात छोडिये, स्थिति यद्द है कि मृपक, नसंचर, पदंश आदि तिर्यग् जातीय जीवों का मेघ अन्धकार में ढंकी वस्तुओं को भी ग्रहण करता है। कितने लोगों का अञ्जनविशेष आदि से संस्कृत नेत्र भित्ति आदि से व्यवहित वस्तुओं के भी ग्रहण में समर्थ होता है। एक दीपावतार आदि में समुद्र, सेना, पवत तथा नगर आदि को भी देख पाने में समर्थ होता है। तो जैसे कुछ पुरुषों के नेत्र उक्त रीति से सामान्य स्थिति में न दिखाई देनेषाले पदार्थों को भी देख लेते हैं, उसी प्रकार यदि किसी विशियपुरुष का नेत्र देश काल और स्वभाव से विप्रकृष्ट भी धर्म, अधर्म आदि को देखने में समर्थ होता हैं तो इस में दृष्ट. स्वभाव का अतिक्रमण क्या होता है ? विषय के अष्ट अतिक्रमण होने की भी बात नहीं कही जा सकती क्योंकि चक्षुःश्रवा-सर्प को चश्च से शब्द के प्रवण की प्रसिद्धि होने से विषया