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[ शासवार्ता स्त० १०/१८ दृष्टस्याऽकरुपनात् । 'कर्णच्छिद्रानुपलब्धेबंदशकचक्षुत्यिन्तरमेवेति चेत् ! तुझ्यमेतदुत्तरमन्यत्रापि, प्रकृष्टपुण्यसंभारजनितसर्वविच्चक्षुपो जात्यन्तरत्वात् । अभ्युपगमवादश्चायम्, वस्तुतो घातिकर्मक्षयाविमतत्वेन केवलज्ञानस्याऽतीन्द्रियत्वादिन्द्रियजज्ञानस्यावग्रहादिक्रमानुविद्धत्वादिति द्रष्टव्यम् ।
ये तु यौगाः संगिरन्ते–'मनःकरणकमेव योगिनां प्रत्यक्षम्, योगजधर्मपत्यासत्त्या मनसैव निखिलार्थसाक्षात्कारात्' इति--तेऽपि प्रान्ताः, योगजधर्मस्य मनःप्रस्थासचित्वं चक्षुरादिप्रत्यासत्तित्व वेत्यत्राऽविनिगमात् । विशेषतहकारे मानस प्रातिभप्रत्यक्ष दृष्टमिति योगिप्रत्यक्षमपि धर्मविशेषतिक्रमण भी अष्ट नहीं है। कर्णस्छिन म होने से सर्प के सम्बन्ध में यदि यह कहा जाय कि-' सर्प का चक्षु रूपदर्शीचक्षु से विलक्षण है और शब्द उसका विषय ही है अतः विषयातिकमा के समर्थन में चक्षु द्वारा सर्प के शपश्रवण को निमित्त नहीं बनाया जा सकता'-तो यह उत्तर सर्वत्र पुरुष के सम्बन्ध में भी समान है, क्योंकि यह निर्वाधरूप से कहा जा सकता है कि पुण्यप्रकर्ष से सर्वज्ञ को रूपादिदर्शीचच से विलक्षण ऐसे चक्षु की प्राप्ति होती है जो धर्म-अधर्म आदि को भी देखने में समर्थ होता है।
संघेश की सर्वदर्शिता का उक्तरीति से समर्थन करते हुये जो यह कहा गया कि सर्वज्ञ धर्म-अधर्म सभी पदार्थों का ज्ञान इन्द्रिय से अर्जित कर सकता है, वह अभ्युपगमवाद या प्रौढिवादमात्र है। सच यह है कि लवंश का केवलशान समग्न घातीकर्मों के क्षय से आविर्भूत होने के कारण अतीन्द्रिय यानी इन्द्रियाजन्य होता है, क्योंकि इन्द्रियजम्य ज्ञान अपग्रह, ईहा आदि के क्रम से उत्पन्न होता है और केवलज्ञान में यह कम नहीं होता।
[योगिप्रत्यक्ष में मन करण नहीं होता] नयायिकों का कहना है कि योगी को जो सर्वविषयक प्रत्यक्ष होता है वह मनःकरणंक है, योगजधर्मरूप प्रत्यासत्ति से योगी को मन से ही सभी पदार्थों का साक्षात्कार होता है। इस के विरुद्ध व्याख्याकार का कहना है कि उक्त बात को कहनेवाले नैयायिक भ्रमग्रस्त हैं, क्योकि योगजधम मन की प्रत्यासत्ति है अथवा चक्षु आदि बाश इन्द्रियों की प्रत्यामत्ति है' इस में कोई विनिगमना नहीं है। कहने का आशय यह है कि 'योगजधर्म' न्यायमतानुसार विषय के साथ इन्द्रिय की प्रत्यास त्ति भी हो सकती है। इस प्रत्यासप्ति के अनुयोगी हैं समस्तपदार्थ और प्रतियोगी है इघ्रिय, प्रतियोगिता का नियामक सम्बन्ध है निजातीय स्थाश्रयसंयोग । स्व का अर्थ है योगजधर्म उस का आश्रय है योगी की आत्मा, उस का विजातीय संयोग है उसकी इन्द्रिय के साथ। अतः इन्द्रिय 'योगजधर्मरूप' प्रत्यासत्ति का प्रतियोगी है। उस की अनयोगिता का नियामक है स्वाश्रयसंयुक्तसंयक्तविशेषणता, स्त्र का अर्थ है योगजधर्म, उस का आश्रय है योगी की आत्मा, उन से संयुक्त है उस का शरीर और उस शरीर से संयुक्त है महाकाल, उस की विशेषणता है समस्त पदार्थों में, क्योंकि महाकाल कालिकविशेषणता सम्बन्ध से सम्पूर्ण पदार्थ का आश्रय है। अतः समस्तपदार्थ इस प्रत्याससि के अनुयोगी हैं । ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि योगजधर्म मन की ही प्रत्यास सि है, चक्षु आदि की नहीं है-जब कि उस की प्रतियोगिता का नियामक सम्बन्ध मन के समान चक्षु आदि में भी विद्यमान है। इसलिये यह कथन ब्रममूलक है कि योगी को योगजधमरूप प्रत्यासत्ति से मन से ही समस्तपदार्थों का साक्षात्कार होता है, चक्षु आदि से नहीं होता ।