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[ शाखवार्ताः स्त० १०/१८ प्रमाणसंख्याव्याघातापत्तेः, एकतरबलसत्त्वे चाविनिगमात् । अपि च, अमावग्रहे भावानुपलब्धिवद् भावमहेऽप्यमावानुपलब्धेहेतुत्वात् प्रत्यक्षथैवोत्सीदेत् , घटादिग्रहेऽपि घटाभावानुपलब्धेापारात् , इन्द्रियसहकारित्वं तु तस्या उभयत्र तुल्यमिति दिग । तसो नाभावप्रमाणप्रवृत्तिः सर्वज्ञे इति व्यवस्थितम् ।
यच्च एवं विप्रतिपन्न प्रत्यक्षं यदि'....(प्ट. १५) इत्यादि प्रसङ्गसाधनमुद्भावितम् । तदप्यापाद्यापादकयोस्तद्विपर्यययोश्च व्याप्यव्यापकभावे सिद्धे शोभते, स चाद्यापि न सिद्ध इति न फिश्चिदेतत् | यदपि (पृ. १५) 'यत्नाप्यतिशयो दृष्टः, येऽपि सातिशया दृष्टाः'....इत्याद्यक्तानुरोधेन स्वविषयस्वग्राह्य
प्रमाणों से किसी निजातीयप्रमा की उत्पत्ति मानी जायगी तो उस प्रमा के करण को एक अतिरिक्त विजातीयप्रमाण भी मानना पड़ेगा। फलतः प्रमाणों की स्वीकृत संख्या का ध्याघात होगा। यदि उक्त सभी दोषो के भय से उक्तस्थल में किसी एक ही प्रमाण का कार्य माना जायगा सो सा मानने में कोई विनिगममा न होगी।
अभाव को अतिरिक्तप्रमाणस्थीकृत भानने में सब से बडी बाधा यह है कि जब अभावग्रह में भावानुपलब्धि करण होगी तब तुल्ययुक्ति से भावग्रहण में अभावानुपलब्धि भी करण क्यों न होगी? क्योंकि घट आदि भार पदार्थों के ग्रहण में घट आदि के अभाव की अनुपलब्धि भी अपेक्षित होती है । फलतः प्रत्यक्षप्रमाण की कथा ही समाप्त हो जायगी । यदि यह कहा जाय कि-'भावपदार्थ का ग्रहण केवल अभाव की अनुपलब्धि से ही नहीं हो जाता किन्तु हन्द्रिय की भी अपेक्षा होती है अतः भावग्रहण इन्द्रियकरणक ही होता है, अभाव की अनुप. लधि तो उस की सहकारी होती है'-तो यह बात अभावग्रहण के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। जैसे यह कहा जा सकता है कि अभावग्रहण इन्द्रियकरणक ही होता है भावानुपसब्धि उस की सहकारी होती है।
अभाव के पृथक प्रामाण्य के विरोध में जिन युक्तियों का संकेत किया गया उन से अभाव के प्रामाण्य का निगास हो जाने से यह सिद्ध है कि सर्वज्ञ में अभावप्रमाण की प्रवृत्ति सम्भव न होने से सर्वज्ञ के अभाव का साधन असम्भव है।
[सबैज्ञविरोधी प्रसंगसाधन का निरसन ] सर्वज्ञ के विरोध में एक प्रसङ्गसाधन-तर्कमलक अनुमान का उद्भाधन जो इस प्रकार क्रिया गया था कि पृ.१५) विप्रतिपन्नप्रत्यक्ष-धर्म, अधर्भ आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का बह शाम जिस में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्षत्य की विप्रतिपत्ति ह-यदि किसी पुरुष में आश्रित हो तो उस पुरुष की उपलब्धि होनी चाहिये । यतः ऐसा कोई पुरुष उपलब्ध नहीं है अतः उक्त विप्रतिपन्न प्रत्यक्ष किसी पुरुप में आश्रित नहीं है । इस प्रसङ्गलाधन से धर्म, अधर्म आदि के द्रष्टा सर्वज्ञपुरुष का अभाव सिद्ध हो सकता है।' च्याख्याकार का कहना है कि यह उद्भावन तभी समीचीन हो सकता है जब उक्त प्रत्यक्ष के आश्रयभूत अपरूप आपादक में उक्त प्रत्यक्ष के आश्रयपुरुष की उपलधिरूप आपाध की व्याप्ति एवं उक्त प्रत्यक्षाश्रय पुरुष की उपलब्धिरूप आपाय के अभाव में उक्त प्रत्यक्ष के आश्रय पुरुषरूप आपादक के अभाव की व्याप्ति सिद्ध हा; क्योंकि प्रसङ्ग तत्मिक बुद्धि में आपादक में आपदाव्याप्ति का और प्रसङ्गसाधन-समूलक अनुमान में आपाधाभाव में आपादकाभावव्याप्ति का ज्ञान कारण होता है । किन्तु उक्त व्याप्ति सिद्ध नहीं है, अत. उक्त उद्भावन अकिश्चित्कर है।