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स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
किञ्च, प्रमाणयोर्विरोधादधिकरणविशिष्टाभावधीरण्येवं न युज्यते, अमाचज्ञानेऽधिकरण-प्रतियोगिनोरुपनीत योनानभ्युपगमेऽधिकरणांशे 'साक्षात्करोमि ' इत्यनुभवानुपपत्तेः अनुमानाऽभावप्रमाणयोः समाहारे व्यापकाभाव --व्याप्याभावप्रतीत्यनुपपत्तेश्च द्वयोर्मिथः प्रतिरोधेऽनुभवस्यैवानुपपत्तेः, अप्रतिरोधे च सांकर्यात्, तस्स्थलीयानुभवे जात्यन्तरस्वीकारे च तत्र करणान्तरस्यावश्यकत्वात्
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उपन्यास साध्य के ज्ञान के बिना नहीं हो सकता । इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष के कारण अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि अनुपलब्धिलिङ्गक उक्त अनुमान से अभाव के प्रतियोगीरूप में भाव का विशेषरूप से मान नहाने में विशेषरूप से मैत्रादिविशेषित अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता ।
अभावज्ञान को इन्द्रियजन्य मानने में एक और युक्ति है । वह यह कि दृष्ट करण से ही श्रम की उत्पत्ति का नियम होने से अभावभ्रम को भी दुष्टकरण से ही उत्पन्न मानना होगा । किन्तु यदि अनुपलब्धि को अभावज्ञान का करण माना जायगा तो दोष से अनुपलब्धि का उपघात न होने से अभावभ्रम में दुष्करणजन्यत्व की उपपत्ति न होगी अतः उसे बेन्द्रियजन्य ही मानना होगा, तो जैसे अभावभ्रम दोषयुक्त इन्द्रिय से जन्य होगा वैसे ही अभावप्रमा की भी दोषहीन इन्द्रिय से जन्य मानना ही युक्ति संगत हो सकता है। क्योंकि जो करण सदोष होने पर जिस का भ्रम उत्पन्न करना है बही निर्दोष होने पर उसी की प्रमा भी उत्पन्न करता है-ऐसा नियम है ।
[ अधिकरणविशिष्ट अभाव के ज्ञान की अनुपपत्ति ]
दूसरी बात यह भी ज्ञातव्य है कि अभाव को स्वतन्त्रप्रमाण मानने पर अभावप्रमाण के विषय में प्रमाणान्तर की प्रवृत्ति और प्रमाणान्तर के विषय में अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति में विरोध होने से भृतवरूप अधिकरण के ग्राहक इन्द्रिय से घटाभाव का ग्रहण अशक्य होने से एवं भाव के ग्राहक घटानुपलब्धिरूप अभावप्रमाण से भूतल का ग्रहण अशक्य होने से 'भुतले बटो नास्ति भूतल में घटाभाव है इस प्रकार का अधिकरणविशिष्ट अभावज्ञान न हो सकेगा। और यदि अभावज्ञान में अधिकरण एवं प्रतियोगी का भान प्रमाणमूलक न मान कर उपनयज्ञानमूलक माना जायगा तो अधिकरणांश के ज्ञान का साक्षात्कारत्वरूप से अनुभव न हो सकेगा।
अभाव को स्वतन्त्रप्रमाण मानने में एक और दोष है, वह यह कि व्यापकाभावभाव से व्याप्याभाव - धूमाभाव के साधक अनुमान और यहवभाव एवं धूमाभाव के ग्राहक वह्नि और घूम की अनुपलब्धिरूप अभाव प्रमाण, इन दोनों का लसन्निधान आवश्यक होने से श्रयभावरूप व्यापकाभाव और धूमाभावरूप व्याप्याभाव की प्रतीति न हो सकेगी, क्योंकि अभाव के आनुपलब्धिक अनुभव की सामग्री से अभाव के आनुमानिक अनुभव का, और अभाव के आनुमानिक अनुभव की सामग्री से अभाव के अनुपलब्धिक अनुभव को प्रतिरोध हो जाने से अभाव के किसी भी अनुभव की उत्पत्ति ही न हो सकेगी। और इस त्रुटि के निराकरणार्थ यदि उक्त अनुभवों की सामग्रियों को परस्पर कार्य का प्रतिबन्धक न माना जायगा तो दोनों प्रभागों से आनुमितिक- अनुपलब्धिक उभयात्मक एक अनुभव के उत्पन्न होने से उस मैं अनु मितित्व और अनुपलब्धिकत्व दोनों का सांकर्य होगा। और यदि सांकर्य के निरासार्थ उन दोनों
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