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________________ २. ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो०४ केचित्तु ज्ञान-कर्मणोस्तुल्य(व)वत् समुच्चयमपि स्वीकुर्वन्ति, तथा च भास्करीया:'तीर्थविशेपस्नान-यम-नियमादीनां तावद् निःश्रेयसकारणत्वं शब्दपलादेवावगम्यते । तत्र तत्त्वज्ञानव्यापारकत्वं न शाब्दम् , न वान्यथानुपपत्त्या, तत्वज्ञानस्यापि व्यवहितस्याऽष्टद्वारकत्वावश्यकत्वेऽत्राप्यदृष्टस्यैव द्वारत्वौचित्यात , ज्ञानिनामपि यमादारधिकारानपायाच । श्रुतिरपि "अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते, ततो भृय इव ते तमो यये विद्यायां रताः" तथा "विद्या चाविद्या च" इत्यादि । “तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय" इति तु तत्वज्ञानस्यापत्रसामग्रीनिवेशनियमपरम् , न तु वाक्यान्तरावधृतकारणव्युदासार्थम् । कर्मणां समुच्चयश्चात्र स्वस्वाश्रमविहितानां साधारणानां यमादीनाम् , असाधारणानामपि यज्ञादीनामीश्वराणबुद्धया विहितानामिति न यावत्कर्यसमुनयानुपपत्तिदोषः इति । तेऽपि बाह्याः परमार्थाऽवेदिनः, न हि कर्मणो ज्ञानस्य वाऽदृष्टद्वारा मोक्षजनकत्वमस्ति, कर्मद्रच्यरूपस्य तस्य संसाराजकत्वान् । द्रव्यरूपता च तस्य "चेतनस्य स्व-परज्ञस्य तदात्मनो हीनमातगर्भस्थानप्रवेशस्तत्संबद्धान्यनिमित्तः, अनन्यनेयत्वे सति तत्प्रवेशात् , मत्तस्याऽशुचिस्थानप्रवेशवत्'' इत्यादिना सिद्धा। होता है कि शिव वश्चक हैं क्योंकि उनके कयन से योग और ज्ञान दोनों मार्गों के विषय में भ्रम उत्पन्न हो सकता है क्योंकि अनेकान्तवाद का आश्रय लिये बिना नयाश्रित मतभेद आदि की संगति नहीं होती । अतः अनेकान्तवाद को न मानना और मतभेद से मार्गभेद बताना स्पष्ट वश्वना है। [ ज्ञान-कर्म तुल्यवत् समुच्चयबादी भास्करमत ] कुछ विद्वान ज्ञान और कम की तुल्यता के आधार पर उनके समुच्चय को भी मोक्ष का उपाय मानते हैं। ऐसे लोगों में भास्कर मतानुयायी विद्वानों का उल्लेख किया जा सकता है क्योंकि उनका कहना है कि "तीर्थ विशेष में स्नान, यम, नियम प्रादि कर्म मोक्ष के कारण हैं, यह बात शास्त्रों से ज्ञात होती है।" उनका यह भी कहना है कि इन कर्मों को तत्त्वज्ञान के द्वारा मोक्ष का सम्पादक नहीं माना जा सकता क्योंकि तत्त्वज्ञान को उन कर्मों का व्यापार मानने में शरद (आगम) अथवा अन्यथाऽनुपपत्ति कोई प्रमाण नहीं है। हो यह मानना अधित अवश्य है कि जैसे व्यवहित तत्वज्ञान प्रष्ट द्वारा मोक्ष का जनक होता है, वैसे ये कर्म भी प्रदृष्ट द्वारा ही मोक्ष के जनक होते हैं, क्योंकि इन कर्मों के सम्पन्न होने पर तत्काल ही मुक्ति नहीं प्राप्त होती। उनका यह भी कहना है कि यम, नियम आदि कर्मों में ज्ञानो भी अनधिकृत नहीं है. इस लिये भी यह ज्ञात होता है कि ज्ञान-कर्म का समुच्चय मोक्ष का जनक है। इस मत का समर्थन श्रुति भी करती है । (१) एक श्रुति का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो लोग केवल अविद्या-कर्म की उपासना करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो लोग विद्या में रत होते हैं, ज्ञान नात्र को ही उपासना करते हैं, वे और अधिक गहरे अन्धकार में प्रवेश करते हैं।'
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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