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स्या० १० टीका एवं हिन्दीविषेचन ]
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इत्थं च यदुक्तं वशिष्ठेन
"द्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानं च राघव ।।
योगश्चित्तनिरोधो हिं ज्ञानं सम्यगवेक्षणम् ॥ १॥" इति । तदपि ज्ञान-कर्मसमुच्चयमनुरुणद्धि ।
र अमराशिवाय उनीशे अधुसूबनेन-प्रथमः प्रकारः प्रपश्चसत्यत्ववादिनाम् , द्वितीयस्त्वद्वैतवादिनाम् इति । अत एवोक्तं तेनैव
"असाध्यः कस्यचिद् योगः कस्यचिद् तत्त्वनिश्चयः ।।
प्रकारौं द्वौ ततो देवो जगाद परमः शिवः ॥१॥" इति । तस वादद्वयस्य वास्तवत्वं शिवस्योभयपथभ्रान्तिजनकत्वेन प्रतारकता व्यञ्जयतीति न किञ्चिदेतत् । न बनेकान्ताश्रयणं विना नयमतभेदादिकं संगच्छत इति ।
ज्ञान विषयग्राही परिणाम स्वरूप प्राकार से सम्पृक्त होता है, अतः निविवाद है कि योगी को समाधि च्यापार की अपेक्षा चित्तदर्शन के लिये नहीं होती, क्योंकि यह उसे स्वभावत: सुलभ हो जाता है, अपेक्षा होती है उसकी चैतन्य से चित्त को पृथक् करने के लिये, और इस पृथक्-करण में जैसे क्रिया हेत होती है वैसे ही ज्ञान भो हेत होता है, क्योंकि सभ्य से चित्त के पृथक-करण का अर्थ है दोनों के भेव विषयक अहान का निराकरण, जिसके लिये दोनों का भेद-ज्ञान अवश्य अपेक्षित है। इस प्रसंग में यह बात अवधान योग्य है कि योगपद से वोध्य चित्तवृत्तिनिरोधात्मक व्यापार अवश्य केवल आभोग-चित्त की विशेष क्रिया से साध्य है, चित्त का पृथक्-करण नहीं, उसमें तो क्रिया के समान ज्ञान की अपेक्षा प्रावश्यक हो है ।
[ ज्ञान-कर्म समुच्चय से मोक्ष-यशिष्टाभिप्राय ] वसिष्ठ ने राम को सम्बोधित कर कहा है कि-"चित्तनाश के दो साधन हैं, योग और ज्ञान । योग का अर्थ है चित्तनिरोध, एवं ज्ञान का अर्थ है सम्यक अवेक्षण यथार्य दर्शन ।" इस कथन के सम्बन्ध में व्याख्याकार का कहना है कि यतः उक्त रीति से यह सिद्ध है कि-ज्ञान और कर्म दोनों मिलकर मुक्ति के हेतु है, अतः वसिष्ठ के इस कथन का तात्पर्य, ज्ञान और क्रम के समुच्चय को ही मुक्ति का हेतु बताने में है।
मधुसुदन ने वसिष्ठ के इस कथन का जो यह प्राशय बताया है कि-चित्तनाश का प्रथम साधन प्रपश्च को सत्य मानने वालों के लिये है और द्वितीय साधन अद्वैत वेदान्तियों के लिये है, इसलिये उन्होंने हो कहा है कि किसी को योग असाध्य होता है, और किसी को तत्त्वज्ञान असाध्य होता है। इसी कारण से परम शिव ने दो साधनों का उपदेश दिया है। व्याख्याकार ने मधुसूदन के प्राशय वर्णन को यह कहकर असंगत बताया है कि यसिष्ठ के उक्त कथन का मधुसूदनोक्त आशय स्वीकार करने से प्रपञ्चसरस्ववाद और अद्वैतवाव इन दोनों यादों की सत्यता प्रतीत होती है. साथ ही यह भी प्रतीत