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[ शास्त्रवार्ता० स्त० १० / ३६
भ्युपगमेन द्रव्यचाक्षुषजनकतावच्छेदकत्वनिष्ठजातेरेव द्रव्यस्पार्शनजनकतावच्छेदकैकत्वनिष्ठजातिव्याप्यत्वं किन स्यात् इति विभाव्यते; तदाप्येकस्या एवैकत्यनिष्ठजातेर्द्रव्यचाक्षुष-स्पार्शनोभयजनकतावच्छेदकत्वाद न वाय्वादेः स्पार्शनत्वमिति तु स्वतन्त्राः |
यत्तु 'घटाकाशसंयोगद्वित्वादेः स्पायस्यान छत स्वाश्रसत्वसंवन्धेन लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचा भावस्य प्रतिबन्धकत्वं कल्प्यते, व्यासज्यवृत्तिगुणत्वाचत्वावच्छिन्नं प्रति तथात्वे गुणादित्वाचं प्रति प्रकृष्टमहत्त्ववदुद्भूतस्पर्शवत्समवायस्य पृथक्कारणत्वकल्पनापत्तेः ।
मानना चाहिये क्योंकि व्यस्पार्शन में प्रकृष्ट महत्त्व और उदभूतस्पर्श को कारण मानने में गौरव है अतः एक विजातीय एकत्व को ही प्रत्यस्पार्शन का कारण मानना उचित है । इन दोनों जातियों में सांकर्य न हो इस दृष्टि से स्पार्शन की जनकता के अवच्छेदक एकत्वनिष्ठ जाति को व्याप्य मान लेना चाहिये । वायु में प्रत्यचाक्षुत्र की जनता के अच्छेदक जाति से विशिष्ट एकत्ष के न रहने से उसमें प्रत्यस्पार्शन की जनता के भवच्छेदक जाति से विशिष्ट पकत्व भी नहीं रहता, अतः वायु का स्पार्शनप्रत्यक्ष सम्भव न होने से बाच एकेन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष विषयत्वरूप हेतु उसमें पकद्रव्यत्वरूप साध्य का ध्यभिचारी नहीं हो सकता ।
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यदि यह शङ्का दो कि ' त्रसरेणु को अचाक्षुष मान कर प्रध्यचाक्षुष की अनकता के अबच्छेदक एकत्वनिष्ठजाति को ही द्रव्यस्पार्शन की जनता के अवच्छेदक एकत्वनिष्ठजाति का व्याप्य क्यों न माना जाय ? और यदि यह मानना सम्भव हो सकता है तो वायु का पा प्रत्यक्ष सम्भव होने से वायु में बाह्य एकेन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष विपयत्व में एक प्रयत्य के व्यभि चार का वारण असम्भव है तो इस का उत्तर यह हो सकता है कि द्रव्य के चाक्षुष और स्पार्शन दोनों की जनकता का अवच्छेदक लय की दृष्टि से एकaag एक ही जाति को मानना चाहिये, वायु का चाक्षुष न होने से उसमें तज्जातीय एकत्व का अभाव होने के कारण वायु का प्रत्यक्ष न होने से उसमें उस हेतु में उक्त साध्य का व्यभिचार नहीं प्रसक्त हो सकता । [ स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से त्वाचाभाव की प्रतिबन्धकता - एकदेशी ]
प्रस्तृत प्रसङ्ग में कुछ विद्वानों का यह कहना है कि द्रव्यसमवेत के स्पार्शन प्रत्यक्ष का कारण उद्भूतस्पर्श स्थाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से तथा त्वक्संयुक्तसमवायसम्बन्ध से घटाकाश के संयोग तथा घरकाशगत द्वित्व आदि में विद्यमान हैं, अतः उनके स्पार्शनप्रत्यक्ष की आपत्ति होती है, इसलिये द्रव्य से भिन्न सत् के त्याचप्रत्यक्ष के प्रति लौकिकविषयता सम्बन्ध मे त्याच प्रत्यक्षाभाव को स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से प्रतिबन्धक मानना आवश्यक है-स्व का अर्थ हैं त्वाचाभाव, उसका माश्रय है आकाश उसमें समवेत है उक्त संयोग और द्वित्य, अतः उनका प्रत्यक्ष नहीं होता, क्योंकि वे दोनों श्रव्य से भिन्न सत है। अतः उनका त्याचप्रत्यक्ष आकाशनिष्ठ स्त्राचाभाव से प्रतिबद्ध हो जाता है । प्रतिवध्यद में सत् में द्रव्यभिनन कहने पर पृथिवी आदि के चतुरणुक का स्पार्शन भी प्रतिवद्ध हो जायगा, क्योंकि सरेशु का त्याचप्रत्यक्ष न होने से स्वाधाभाव रूप प्रतिबन्धक उक्त सम्बन्ध से चतुरणुक में रहेगा । प्रतिarrer में प्रव्यभिन्न सत् का निवेश न कर द्रव्य भिन्नमात्र का निवेश करने पर अभाव का स्पर्शन भी प्रतिबध्यवर्ग में आ जायगा किन्तु उसमें त्वाचाभाव रूप प्रतिबन्धक उक्त सम्बन्ध से नहीं रहता ।
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