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स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
[ १५३
भावकूटत्वेन हेतुता, अपि त्वनुद्भूतत्वाभावकूटस्पर्शत्वयोर्व्यासज्यवृत्त्यवच्छेदक तोपगमेनानुद्भूतत्वाभावकूटव स्पर्शत्वेनैव तथात्वमिति विभाव्यते; तदा मूर्त प्रत्यक्षत्वावछिन्नं प्रत्येव महत्वोद्भूतरूपस्पर्शयत्वेन हेतुत्वमस्तु इति वायुप्रभादेरुच्छिन्नैव प्रत्यक्षत्वकथा, स्पर्श-रूपादिप्रत्यक्षेणैव तदनुमितिस्मृत्यादिसंभवात् । द्रव्यस्पार्शनजनकतावच्छेद के कत्वनिष्वजातेः सांकर्यवारणाय द्रव्यचाक्षुषजनकतावच् दकैकत्वनिपजातिव्याप्यत्वस्वीकारात् कुतो वाय्वादेः स्पार्शनम् ? प्रकृष्टमहत्त्वोद् भृतस्पर्शयो द्रव्यस्पार्शन प्रति गौरवेणाऽहेतुत्वात् एकस्य विजातीयैकत्वस्यैव तत्त्वौचित्यात् । यदि च सरेणोरचाक्षुपत्वा
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यदि मूर्त प्रत्यक्ष सामान्य के प्रति स्पर्श को कारण माना जायगा तब वायु के चाक्षुप की आपत्ति होगी और यदि उस के वारणार्थ द्रव्यचक्षुष के प्रति उदभूतरूप को कारण माना और सत्य के विशेष्य-विशेषणभाव में विनिगमनाविरह से उद्भूतरूप में गुरूरूप से दो कारणता की कल्पना होने से गौरव होगा, और यदि चाक्षुष में अनुद्भूतरूपाभावकूट को कारण माना जायगा तो पुनः बायु के चाप्रत्यक्ष की आपत्ति होगी ।
तो
[ वायु में स्पार्शन प्रत्यक्ष विषयता की शंका का उत्तर ]
यदि यह शङ्का हो कि अभावगत कृत्व संख्यारूप न हो सकने से अपेक्षाबुद्धिविशेषधित्वरूप होने के कारण अपेक्षाबुद्धि के भेद से भिन्न-भिन्न होता है, अतः फुटत्वरूप अवच्छेदक के भेद से कारणता के प्रसक्त बाहुल्य के भय से द्रव्यम्पार्शन में अनुभूत स्पर्शाभावकृट को कारण नहीं माना जा सकता किन्तु अनुभृतत्वाभावकूट और स्पर्शत्य में व्यासज्यवृत्ति पकावच्छेदकता मान कर अनुभूतत्वाभावकृत विशिष्ट स्पर्शत्व रूप से ही द्रश्य स्पार्शन के प्रति कारणता मानना उचित है। अतः द्रव्यचाक्षुष के प्रति ही उद्भूतरूप को कारण मानना सम्भव होने से वायु के स्पार्शनप्रत्यक्ष में कोई बाधा न होने के कारण उस में बाह्य एकेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष विषयत्व में एक व्रव्यत्वरूप साध्य का व्यभिचार अनिवार्य है।' तो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि महत्त्व, उद्भूतरूप तथा उद्भूतस्पर्श में एक व्यासज्यवृत्ति अवच्छेदकता मानकर मूर्त प्रत्यक्ष सामान्य में महत्त्व उद्भूतरूप, उद्भूतस्पर्शवत् कारण है ऐसा मानने पर वायु और प्रभा दोनों का प्रत्यक्षत्व यद्यपि समाप्त हो जाता है तथापि उनकी असिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि वायु के उद्भूतस्पर्श का प्रत्यक्ष होने से उस स्पर्श से वायु की और प्रभा के उद्भूतरूप का प्रत्यक्ष होने से उस रूप से प्रथा की अनुमिति हो सकती है। तथा उस अनुमिति से उत्पन्न संस्कार द्वारा कालान्तर में दोनों की स्मृति भी हो सकती हैं । उक्त कारण की कल्पना के फलस्वरूप वायु का प्रत्यक्ष सिद्ध न होने से उसमें उक्त हेतु में साध्य के व्यभि चार की प्रसक्ति नहीं हो सकती ।
[ वायु के स्पार्शनप्रत्यक्ष के प्रतिक्षेप में स्वतन्त्रमत ]
इस विषय में कतिपय स्वतन्त्र विचारकों का यह कहना है कि जिनद्रयों का चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है उन द्रव्यों की एकत्वसंख्या में एक बेजात्य मानकर व्रत्यन्वाक्षुष के प्रति विजातीय पकत्वको कारण मानना चाहिये, एवं जिन द्रव्यों का स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है उन द्रव्यों के पकत्व में भी अन्य वैजात्य मानकर अध्यस्पार्शन के प्रति भी विजातीय पकत्व को कारण