SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्था. क. टीका-हिन्दीविवेचन ] द्रव्यान्यसत्प्रत्यक्षत्वावच्छिन्न प्रति चाक्षुषाभावस्य तथास्वे च घर-प्रभासंयोगादिस्पार्शनापत्तेदुर्निवारत्वात् , इति वायूष्मादेरपार्शनरवेन तद्वृत्तिस्पार्शनानुपपत्तिः । न च स्पर्शतरद्रव्यान्यसत्त्वाचत्वं तत्प्रतियध्यताबच्छेदकम् , स्पर्शेतरत्वप्रवेशे गौरवात् ; घटा-5ऽकाशसंयोगादौ 'स्पार्शनसामान्यापत्तिवारणाय 'स्वस्पर्शस्पार्शन प्रति स्पर्शत्वेन, परमाण्वादिस्पर्शस्पार्शनवारणाय प्रकृष्टमहत्त्वेन चातिरिक्तकारणत्वकल्पनाच' इति तदसत . सरेबादिघटितसनिकर्षेण द्रव्यत्वादित्वाचप्रसङ्गवारणाय द्रव्यान्यद्रव्य उक्त संयोग और द्वित्व आदि के स्पार्शनप्रत्यक्ष के वारणार्थ यदि ऐसी कल्पना की जाय कि प्यासष्यवृति (उभयवृत्तिा गुण के स्वाचप्रत्यक्ष के प्रति उक्त त्याचाभाष उक्त सम्बन्ध से प्रतिबन्धक है, तो इस कल्पना के अनुसार उक्त संयोग और द्वित्य के उभय वृत्तिगुण होने से उनके स्पार्शनापत्ति का परिहार तो हो जायगा किन्तु गुणादि के त्याचप्रत्यक्ष के प्रति प्रकृष्ट महत्व एवं उक्भूतस्पर्श का जो आश्रय, उसके समवाय को पृथक् कारण मानना आवश्यक होने से गौरव होगा। द्रव्यभिन्न सत् के प्रत्यक्षसामान्य में लौकिकचाक्षुषाभाव को स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से प्रतिबन्धक मानने पर भी उक्त संयोग और द्वित्व के प्रत्यक्ष का वारण हो सकता है किन्तु घट और प्रभा के संयोग के स्पार्शन का वारण नहीं हो सकता, क्योंकि घट और प्रभा दोनों का चाक्षुष प्रत्यक्ष होने से चाक्षुषाभावरूप प्रनिधन्धक स्वाश्रयसमधेतत्व सम्बन्ध से घटप्रभासंयोग में नहीं रहता। इस स्थिति में जब कि व्यभिन्न सत् के त्वाचप्रत्यक्ष में स्वाश्रयसमधेतत्य सम्बन्ध से लौकिकत्वाचाभात्र प्रतिबन्धक है तब घायु और उष्मा के स्पर्श का स्पार्शनप्रत्यक्ष नहीं उपपन्न हो सकता और इस कारण ही वाय का बनिरिन्द्रिय से प्रत्यक्ष न हो सकते बहिरिन्द्रियजम्यप्रत्यक्ष विषयत्व, एकद्रध्यत्वरूप साध्य का व्यभिचारी नहीं हो सक ___यदि यह कहा जाय कि " वायु और उष्मा के स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुपपन्न न हो इस दृष्टि से स्पर्श से इतर द्रट्यभिन्न सत् के त्वाचप्रत्यक्ष के प्रति ही उक्त सम्बन्ध से लौकिकत्वाचामाघ प्रतिबन्धक है न कि द्रष्यभिन्न सत् मात्र के त्याचप्रत्यक्ष के प्रति "-तो यह टीक नहीं है क्योंकि प्रतियध्यकुक्षि में स्पर्शतरत्व का निवेश करने में गौरव है। पूसरी बात यह है कि यदि प्रतिवध्यदल में स्पर्शतरत्व का निधेश होगा तो स्पर्श का त्याचप्रत्यक्ष प्रतिबध्य म होगा, फलतः घटाकाशसंयोग मादि में 'यिषयतासम्बन्ध से स्पर्श के स्पार्शन की आपत्ति होगी अतः इस आपत्ति के वारणार्थ विघयतासम्बन्ध से शार्ग प्रत्यक्ष के के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से स्पर्श को धारण मानने में गौरव होगा, प, स्पर्शप्रत्यक्ष के प्रतिवध्य न होने पर परमाणुस्पर्श के भी प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। अन; प्रकृष्टमहत्त्व को भी स्पर्शप्रत्यक्ष के सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से कारण मानना आवश्यक होने से यह एक और गौरत्र होगा । [एक देशी के मत की असमीचीनता ] किन्तु कुछ विद्वानों का यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि प्रसरेणु आदि से घटित १ यहां 'स्पाशनसामान्यापत्ति' के स्थान में 'स्पर्शस्पार्शनापत्ति' पाठ होगा उचित है । २ यहाँ ‘स्वस्पर्शस्पार्शन' के स्थान में ' स्पर्शस्पार्शन ' पाठ होगा उचित है ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy