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॥ अहंम् ॥ हिन्दीविवेचनालंकृत
स्याद्वादकल्पलताव्याख्याविभूषित
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय
[ दशमस्तबकः ]
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[ व्याख्याकारकृतमंगलाचरणम् ] यज्ज्ञानोज्ज्वलदर्पणे प्रतिफलत्येतञ्जगद् यत्वदां - भोजे नम्रसुपर्वनाथमुकुटश्रेण्या मरालायितम् । वाणी सर्वशरीरिवाक्परिणता यस्याङ्गपूर्वार्थस्दोषा न स्म समाश्रयन्ति यमिमं श्रीवर्धमानं स्तुमः ॥ १ ॥ ( वर्धमान - पार्श्वजिन - वाग्देवता स्तुति )
जिसके ज्ञानरूपी निर्मल दर्पण में यह जगत् प्रतिबिम्बित होता है, जिस के चरणकमल में प्रणत देवेन्द्र के मुकुटों की माला हंसो का आचरण करती है, जिस की बाजी समस्त देहधारियों की वाणी में परिणत होती है तथा अङ्ग और पूर्व के अर्थों का प्रसव करती है, जिसे दोष कभी आश्रय नहीं कर पाते उस श्रीवर्धमान की हम स्तुति करते हैं । फणिपतिफण रत्नप्रान्तसंक्रान्तमूर्तिर्युगपदिव दिधक्षुः स्पष्टमष्टापि बन्धान् । जगति विधृतरूपो दित्सुरष्टाथ सिद्धीर्दलयतु जिनभास्वानष्टधाकष्टधाराम् || २ ||
सर्पराज के फणवर्ती रत्नों के प्रान्तभाग में संक्रान्त प्रतिबिम्ब के कारण ऐसा लगता है मानों कि जो आठों बन्धों को एक साथ ही असन्दिग्धरूप से दग्ध करने को इच्छुक हैं, एवं आठों सिद्धियों को देने के लिए तत्पर है-इसी लिये मानों कि जगत में आट शरीर धारण न किया हो, वे पार्श्वजिनरूपी सूर्य कष्ट की धारा का दलन करें ।
लब्धोदयायां हृदये यस्यां प्रक्षीयते तमः । पुण्यप्रारभारलभ्यां तां कलां कामप्युपास्महे ॥ ३ ॥
हृदय में जिस कला के उदय होने पर अन्धकार का क्षय हो जाता है, पुण्यपुञ्ज से प्राप्य उस अवर्णनीय ऐसी कोई कला (ऍकार ) की हम उपासना करते हैं ।
ननु 'सर्वज्ञस्य ज्ञानयोगेन कर्मक्षयाद् मुक्तिः' इत्युक्तं न युक्तम्, सर्वज्ञस्यैवाभावात्इति वार्तान्तरमुत्थापयति
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