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________________ ६६२ ] [ शास्त्रमा स्त० १० / ३६ निरीक्ष्यते; तेषां बहुक्षणस्थायितामुपेक्ष्य प्रत्यभिज्ञानदर्शनं व्यसनमात्रम् | वस्तुती 'दूरादागतोऽयं शब्दः समीपादागतोऽयं शब्द:' इति 'दूरादागतोऽयं बकुलपरिमलः समीपादागतोऽयं बकुलपरिमल: ' इति प्राणेन गन्धक्रियाविशेषवत् श्रोत्रेण शब्द क्रियाविशेषः साक्षादेव गृह्णत । इत्थमेव श्रोत्राऽप्राप्य - कारित्वाभिमानिशाक्यसिंहविनेयमतनिरासात् क्रियाविशेषग्रहादेव दूरादिव्यवहारोपपत्तः, दूरस्थत्वादेः श्रोत्रेण ग्रहीतुमशक्यत्वात् दूरस्थस्यैव शब्दस्य महे दूरस्थेन महता मेर्यादिशब्देनाल्पस्य मशकादिशब्दस्यानभिभवप्रसङ्गाच्च । न च पवनगतैव गतिः शब्द आरोप्यते स्वाभाविकगतेरन्यगत्यनुविधानानुपपत्तेरिति वाच्यम् इन्द्रनीलामागतेरिन्द्रनीलमत्यनुविधानवदुपपत्तेः । 1 · गित्व सूक्ष्म क्षणिकल्प की आपत्ति यद्यपि प्राप्त होती है. तथापि इस आपत्ति का परिहार पचनसयोग के नाशक्षण में शब्दोत्पत्ति को असम्भव बता कर किया जा सकता है। जैसे यह कहा जा सकता है कि विजातीयपचनसंयोग उत्पत्ति सम्बन्ध से शब्द का जनक है, अथवा काहसान जनक है । अःशब्द का जन्म योग के रहते ही हो सकता है, उस के नाश क्षण में नहीं हो सकता है । अथवा यह भी कहा जा सकता है फि अवच्छेदकतासम्बन्ध से तार शब्द के प्रति कि घा शुकादिप्रभव ककार आदि के प्रति सदभाव कारण है। अतः पश्नसंयोग के नाशक्षण में उस से शब्द की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि वह उस काल में नाश से प्रस्थमान होने के कारण उत्पद्यमान शब्द के भाव नहीं है । इस कार्यकारणभाव को मान्यता प्रदान कर देने से पचनसंयोग से पकावच्छेदेन सह अनेक शब्दों की उत्पत्ति का भी प्रसंग नहीं हो सकता क्योंकि जव अनेक शब्द उत्पाद्य होंगे, तो संयोग उन के सदश न होगा क्योंकि कार णीभूत भाव में कार्य का नाटय उत्पाद-उपविएवं समाख्यात्व उभय रूप से विक्षित है। [ नव्यदृष्टि से किये गये कथन की आलोचना ] कोंके सवन्ध में ख्याकार का कहना है कि जब वे तीन क्षण में शब्दराध की पर मान्यता का त्याग कर शब्द को चार क्षण तक स्थायी मानने को तैयार तर अधिक काल तक स्थायी मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। स्थायी न व्यक्तियों द्वारा कर कदर्शित आ. उन का एक नाम के इस बात का सूचक मात्र है कि शब्द को मानना, ता की सम्प्रदायानुमत क्षणिकता को विकृत करना एवं भिन्न उच्चारित ककार में यह नहीं कार के इस प्रत्यभिज्ञाको समानीयविषयक करना यह उम्र का व्यसन है । , आया है ।" सत्य यह कि जैसे यह सुगन्ध दूर से आया है यह सुगन्ध समीप इस प्रकार गन्ध परिसर के क्रियाविशेष का घ्राण से ग्रहण होता है, उसीप्रकार यह शब्द दूर से आया है यह समीप में आया है इस प्रकार शब्द का क्रियाविशेषांत्र से प्रत्यक्ष गृहीत होता है । शापसिंह के शिष्यों का जो यह मत है कि श्रोत्र अशाध्यकारी यानी असम्बद्ध का ग्राहक होता है यह मत भी इस रीति से निरस्त हो जाता है, क्योंकि दूर समीप आदि का व्यवहार क्रियाविशेष के शान से ही उपपन्न होता है और दूरस्थत्व आदि का ग्रहण अप्राप्त श्रोत्र से सम्भव नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि यदि दूरस्थ ही शब्द का ग्रहण माना जाएगा तो मेरी आदि के दूरस्थ महान शब्द से भेरी के समीप होनेवाले मशक आदि के शब्दों का
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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