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________________ स्या. क, टीका-हिन्दी निघेनन ] अपि च, गुणवत्वादपि द्रव्यं शब्दः । न च गुणवत्त्वमसिद्धम् , कंसपाध्यादिध्वानाभिसबन्धेन कर्णशकुख्यास्यस्य शरीरावयवस्याभिधातदर्शनेन स्पर्शवच्या तस्य तत्सिद्धेः, स्पर्श-वेगसापेक्षक्रियाया अभिघातहेतुत्यात् । 'स्पर्शवता शब्देन कर्णविवरं प्रविशता वायुनेव तद्वारलगतुलशशुकादेः प्रेरणस्यात्-' न स्याद धूमेनानेकान्तात् । भूरे नि पर्शवान, मिशः संघका असोऽ. स्वास्थ्योपलब्धेः, न च तेन चक्षुःप्रदेशं प्रविशता तत्पश्ममात्रस्यापि प्रेरणं समुपलभ्यत इति । न च स्पर्शवत्वे शब्दस्य वायोखि स्पार्शनासाः, धूम-प्रभादिबन्दनु भूत पक्ष वात् । नापि धूमादिवच्चाक्षुपप्रसङ्गः, जलसंयुक्तानलवदनुदभूतरूपत्वाम् । अथ जलसहचरितेनानलेनोग्णस्पर्शवला शरीरदेश. दादबत् तथानिधेन शब्दसहचरितेग बायुनेब श्रावणाख्यशरीरावयवांमधाता न भवाय पर्मवत्त्वमिति चेत् ! न, शब्दतींचतानुविधायित्वेनाभिघातविशेषस्य तद्ध तुकत्वात् । न चानुभूतस्पर्शवता नाभिघात इति सांप्रतम , ताशस्यापि पिशाचादेः पादप्रहारेण तत्संभवात् । 'येगवलि बिरादयबअभिभव न हो सकेगा, क्योंकि शब्दश्रवा के लिए तब शब्द और श्रीन की प्राप्ति अपेक्षित न होगी । तब भरी और मानक दोनों के शब्द दूर से सुन पाने चाहिए। यदि यह कहा जाय कि-' शब्द का होने स गतिहीन है. उस में परन की गति का ही आरोप होता है। यदि ऋद की द्रव्य मान कर उस में स्वाभाविधः गति मानी ज्ञानगी तो यह पवन-गति का अनुविधा- न कर मकेगी-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इन्ग्रनील की प्रभा की स्वाभाविक गति इन्द्रनील की गति का अनुविधान करती है अतः यह नियम असि है कि स्वाभाविक गति अन्य गति का अनुविधान नहीं करती। [ गुणवान् होने से शब्द में द्रन्यत्व-सिद्धि ] उत्पत्ति स्वर में श्रीता के श्रोन तक पहुँचने के लिए अपहित गति से जसे शब्द में द्रव्याध सिन्द्र होता है असेही गुण में भी शद में द्रव्यत्य सिद्ध होता है। शब्द में गुज अप्रमिद्ध है-यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कांस के बर्तन आदि की पनि का सम्बन्ध होने का शरीर के अवयव कर्णशकली' का अभिघात देखा जाता है। अभिवात. स्पर्श एवं धेगसापेक्ष क्रिया से होता है। अतः उक्त ध्वनि में स्पश की सत्ता मिळू होने से एक में गुश सिद्ध है। यदि शंका हो कि-" स्पर्शवान् शन्दद्ध्य अब कर्णछिद्र में प्रवेश करेगा तब नोनहार प लगे हुए कर्षासातूद या सूत्रप तनु आदि को वायुमधेश की तरह धक्का लगेगा " -तो यह ठीक नहीं है। कारण स्पर्श यान् द्रध्य से धक्का लग ही घसा कोई नियम ifie क्योंकि धूम में वैसा नहीं देखा जात। भृभ भी स्पशेवान् द्रव्य हो , अा: रजकग सर्श की तरह धृम स्पर्श से चच में पीडा होती है यह भी देखा जाता है, किन्तु नेत्र में जब उस का प्रवेश होता है तब नत्र : बाल को धक्का लगता हो, बाल कुछ हीलत हो सा दीखता नहीं। अत: शब्दप्रवेश से श्रोत्रस्थ कर्पासतूल आदि को धका न लगे तो कोई आचर्य नहीं है। " शब्द को स्पर्शवान् माग तो वायु की तरह उस के स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी " -यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि धूम और प्रभा की तरह शब्द का स्पर्श भी अनुभूत होता है। धूमादि की तरह शब्द के चाक्षुष प्रत्यक्ष की आपति' को भी अत्रकाश नहीं है क्योंकि उष्णजल गत सूक्ष्म अग्नि अंशों की तरह शब्द का रूप भी अनुभूत होता है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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