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________________ १६४] (शास्त्रवार्ताः स्त: १०३६ क्रिययवाभिधातः, तत्र स्पो न तन्त्रमिति चेत् ? अस्त्वम्, ताकि गुणस्बम मा हरामेव । अस्पत्व-महत्त्वाभिसंबन्धादपि गुणवान् शब्दः, 'अस्पः शब्दो, महान् शब्दः' इति सार्बजनीनानुभवात् । न च बबतृगतं व्यडकगतं वाऽल्प-महत्त्वमारोप्यत इति वाच्यम्, बाधकाभावात् । न चेयत्तानवधारणं बाधकम् , बारबादौ तदनवधारणेऽप्यरुप महत्त्वावधारणात् । न च तारत्वमन्दत्यजातिभ्यामेव शब्दगताभ्यामल्प महत्त्वव्यपदेशोपपत्तन तत्र परिमाणकरुपनमिति वाच्यम् । तारत्वादेः शब्दगतजातित्वाऽसिद्धेः, कत्यादिना सोकर्यात्, 'कत्या दिव्याप्यं तारत्वादिकं भिन्नमेव' इत्यस्य च दुर्वचत्वात् , 'तारत्वादिव्याप्यं कत्वादिकमेव भिन्नमस्तु' इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् । यदि यह कहा जाय कि-जैसे जलसंयुक्त-उठणम्पर्शवान अग्नि से शरीर प्रदेश का दाह होता है उसीप्रकार शब्द के सहचारी स्पर्शवान् वायु से ही शरीर के कर्ण रूप अवयव का अभिघात हो जाने से शब्द में स्पर्श की सिद्धि न हो सकने के कारण शब्द में गुण असिद्ध है ।-' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अभिघात विशेष शब्द की तीव्रता का अनुविधायी होने से अभियान को शब्दजन्य मानना होगा. अतः उस की उपपत्ति के लिए शब्द को स्पर्शवान् मानमा आव ___ 'शब्द में अनुदद्भुत स्पर्श मानने पर उस से कर्ण का अभिघात नहीं हो सकता । ' यह शंका नहीं की जा सकती क्योंकि पिशाच आदि में अनुभूत स्पर्श होने पर भी उस के पादप्रहार से अभिवात होना प्रामाणिक है। यदि यह कहा जाय कि-वेगवान् निशिडावयव द्रव्य की क्रिया से ही अभिघात होता है। उस में स्पर्श की अपेक्षा नहीं होती । अतः पिशाच के वेगवान् निविडाययव होने से उस के पादप्रहार से अभिघात हो सकता है तो इस कथन से भी शध्द में गुण का व्याघात नहीं हो सकता, क्योंकि उस से कर्ण का अभियात उपपन्न करने के लिए उस में वे ग मानना आवश्यक होने से वेगात्मक गुण से उस की गुणाश्रयता अध्याहन है। [ अल्पतादि के अनुभव से शब्द में गुणसिद्धि ] अल्पत्य-महत्व परिणाम के अभिमत सम्बन्ध से भी शब्द में गुण सिद्ध है क्योंकि 'अल्पः शब्दः-छोटा शब्द. महान् शब्द:-ब्रहा शब्द' इस प्रकार के सबजनास भव से स्व-महात्र सिद्ध है। वक्ता के अथवा व्यञ्जक के अल्पत्य महत्त्र का शब्द में आरोप होता है। यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शब्द में होनेवाले अल्पाव आदि के अनुभव का कोई बाधक नहीं है और अबाधित अनुभव आरोगात्मक नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि शब्द में इयत्ता का अवधारण नहीं होता कि 'अमुक शब्द इतना छोटा अथया इतना महान् है,' जब कि जो परिमाणवान होता है उस की इयत्ता का अवधारण होता है । अत: इयत्ता का अवधारण न होना ही शब्द में अल्पस्व-महत्यादि के अनुभव का बाधक है '-तो यह कहना उचित नहीं है क्योंकि वायु में इयत्ता का अवधारण न होने पर भी उस में अल्पत्व-महत्त्व भादि परिमाण सर्वमान्य है। 'तारत्व-मन्दत्य जाति से ही शब्द में महत्त्व-अल्पत्व का व्यवहार हो सकता है, अत: उस में परिमाण की कल्पना व्यर्थ है। यह कहना भी उचित नहीं है क्योंकि कत्व में मन्द ककार में तारत्वाभाव का सामानाधिकरपया और तार खकार में तारत्व में कत्थाभाय का सामानाधिकरण्य पर्व 'क' में कत्व-तारस्व दोनों का सामानाधिकरण्य होने से कत्व आदि
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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