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स्या. क. सका-हिन्दीविधेचन ]
[ १६५ कार्यमात्रवृत्तिजातेः कार्यतावच्छेदकत्वनियमेन नानातास्त्वाचवच्छिन्ने नानाहेतुकल्पनागौरवाच्च । 'मन्दतीव्रताभिसंबन्धादरुप-महत्त्वप्रत्ययसंभवे मन्दवाहिनि गङ्गानीरे 'अल्पमेतत् इति प्रत्ययोत्पत्तिः स्यात् , तीववाहिनि गिरिसरिन्नीरे — महत् ' इति च प्रतीतिप्रसङ्गः ' इत्यपि वदन्ति । न चात्र क्रियानिष्ठयोरेब मन्दत्व-तीव्रत्वयोः प्रत्ययः, शब्दे तु स्वगतयोरेवेति विशेष इति वाच्यम् । शब्देऽपि ' मन्दमायाति, तीत्रमायाति शब्दः' इति क्रियानिष्ठयोरपि तयोः प्रतीयमानत्वात्, क्रियाधर्मस्य क्रियावत्युपचाराश्च नीरेऽपि दृश्यत एव 'इदं नीरं मन्दम्, इदं तीव्रम् । इति न किञ्चिदेतत् ।
वाघुना प्रतिनिवर्तनात् संयोगादपि तथा, गन्धादिवत् प्रतिकूलवायुनाऽऽश्रअनिवर्तनस्य दुर्घचत्वात् , तदाश्रयस्य भवद्भिर्यापकस्याभ्युपगमात्, शब्दात् शब्दोत्पत्तेश्च निरस्तत्वात् । 'तन्निरासे
के सांकर्य से तारत्व आदि में शब्दगत जातिरूपता असिद्ध है। 'कन्य, ग्रत्व आदि की व्याख्य तारत्व आदि जाति अनेक ' यह कहना भी कठिन है क्योंकि विनिगमनाविरह से तारत्व आदि का व्याप्य कल आदि अनेक हैं, यह भी कहना सुकर है । इस के अतिरिक्त तारस्य आदि को अनेक मानने में एक यह भी दोष है कि कार्य मात्र में रहनेवाली जाति कार्यताबच्छेदक होती है यह नियम हैं; अतः इस नियम की उपपत्ति के लिए विभिन्न तारत्व आदि को विभिन्न कारणों का कार्यतावच्छेदक बनाने के निमित्त से अनेक कार्यकारणभाष की कल्पना आवश्यक होने से गौरव होगा।
[ तीव-मन्दता से अल्प-महत्त्व प्रतीति मानने में दोष ] यह भी ज्ञातव्य है कि यदि शब्द में होने वाली अल्पत्य महत्त्व की प्रतीतियों की उपपत्ति मन्दता और तीव्रता द्वारा की जायगी तो मन्दघाही अगाध गंगाजल में अल्पत्य की एवं तीववाही पहाडी झरनों में महत्व की प्रतीति की आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-'गंगानीर में अल्पत्त्र और पहाड़ी झरनों में महत्व की प्रतीति का आपादान नहीं हो सकता, क्योंकि मन्दता, तीव्रता गंगानीर में न होकर उस की क्रिया में है । अत: तद्गत मग्दता तीव्रता को ही तदगत अल्पत्व महत्व प्रतीति का नियामक मानने से उक्त आपत्ति नहीं हो सकती। और शब्द में उक्त प्रतीति की उपपत्ति हो सकती है, क्योंकि यह शब्द की ही मन्दता और तीव्रता से सम्मादनीय है '-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदा कदा शब्द में भी किया की ही मन्दता-तीव्रता से अल्पत्व-महत्व की प्रतीति होती है। जैसेः शब्दः मन्दमाया ति-शब्द मन्दता से आ रहा है' इस प्रतीति से 'शब्द अल्प है। इस प्रतीति की, श्यं शब्दः तीममायाति-शब्द तीव्रता से आ रहा है। इस प्रतीति से 'शब्द महान् है। इस प्रतीति की उत्पत्ति होती है।
दूसरी बात यह है कि क्रियाधर्म का क्रियात्रान में उपचारन्गीण व्यवहार देखा भी जाता है। जैसे मन्द बहते हुप नीर को मन्द शरद से और तीन बहुत हप नीर की तीन शब्द से लोक में शतशः ध्यबहूत होते हुए देखा जाता है । अत: 'तगत मन्दता-तीव्रता से ही तद्गत अल्पता, महत्ता की आरोपात्मक प्रतीति होती है' यह नियम असिद्ध है।
[ वायु प्रतिनिवतन से सिद्ध संयोग से शब्द में द्रव्यत्वसिद्धि ] वायु से शब्द का प्रतिनिवर्तन यानी पीछे की ओर प्रेरण होने से शब्द में घायु का संयोग सिद्ध है, अतः संयोग से भी शब्द में प्रध्यत्व का अनुमान हो सकता है । यह मानना