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स्वा. क. टीका-हिन्दीषिवेचन ।
__ आगमादाप तसिद्धिरित्याहआगमादपि तसिद्धिर्थदसौ चोदनाफलम् । प्रामाण्यं च स्वतस्तस्य नित्यत्वं च श्रुतेरिख ।।१५।। होते हुये भी शंख के श्वतता धर्म का ग्राहक न होने से श्वेत्ता अंश में पीतदोष से प्रति यस होता है।
['शंखः पीनः' इस दृष्टान्त में साध्यशून्यता की शंका ] यदि यह कहा जाय कि- शंखः पीत:-ग्नि पीला है। इस प्रत्यक्षरूप दृष्टान्स में साध्य का अभाव है क्योंकि श्वेतता के अभाव का ज्ञान होने से दी श्वेततामान का प्रतिबन्ध हो जाने के कारण उस में श्वेतताअंश में दोषप्रतिबद्धता अमिङ्ग है। कहने का आशय यह है किशिखः पीतः' इस प्रत्यक्ष के पूर्व 'शंखः न श्वेतः' इस प्रकार शस्त्र में प्रवेतता के अभाव का शान होता है। वह शान ही शस्त्र में प्रवत्यशान का प्रतिबन्धक होता है। पीतन्त्रग्रह का जनक दोष उस का प्रतिबन्धक नहीं होता, वह तो पीतत्वज्ञान के समान वेतता के अभाष के शान को उत्पन्न करता है। यदि उस दोष को ही चेतताशान का प्रतिबन्धक माना जायगा तो जब घिनश्यदयस्थ (नाशाभिमुम) दोष से गामी अपने नाश के अव्यवहितपूर्वक्षण में विद्यमान दोष से, प्रधेतता के अमात्र का ज्ञान होगा तो उसके साथ ही दोष का नाश हो जाने से प्रवेतता के अभात्र शान के अनन्तर श्वेताशान की उत्पत्ति की आपत्ति होगी, अतः प्रधेतताज्ञान के प्रति श्वेतता के अभावशान को प्रतिबन्धक मानना आवश्यक होने से जिस दशा में दोष और श्वेतता के अभाव का ज्ञान दोनों विद्यमान है उम दशा में भी श्वेतता के अभावशान को ही श्वेतताज्ञान का प्रतिबन्धक मानना उचित है।'
[शंका का प्रत्युत्तर] तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जहाँ विनश्यदवस्थयोष से प्रचेतता के अभाव का शान होता है वहाँ भ्रतता के अभाव के शान के उत्पत्तिकाल में घिनश्यदधस्थ बाह्यदोष का नाश हो जाने पर भी आन्तरदोष का नाश नहीं होता, क्योंकि आन्तरदोष का नाश केवल, कार्य से ही अनुमित होता है और वहाँ आन्तरदोष के नाश का कोई कार्य प्रात नहीं होता। दूसरी बात यह है कि जिन हेतृओं से शादोष की निवृत्ति होती है उन हेतुओं से अन्तरदोष की निवृत्ति नहीं होती क्योंकि वे हेतु बाह्यदोष के नाश के लिए ही सक्रिय होते हैं आन्तबदोष के नाश के लिये नहीं। अतः सामान्य मनुष्य के घटसाक्षात्कार में विश्व के स्पष्ट मान का विरोधी आन्तरदोष, पित्त आदि दोर के ममान, जिम पुरूप में नष्ट हो जाता है उस पुरुष के घटसाक्षात्कार में विश्व का स्पष्ट भान होने में, वह पुरुष उक्त अनुमान द्वारा मश सिद्ध होता है। इसी बात को कारिका में इति नानुमानं न विद्यते' इम भाग से निपेधप्लम्स से कहा गया है। जिस का अर्थ यह है किसर्वज्ञ साधक अनुमान नहीं है यह बात नहीं किन्तु मयंश साधक उक्त अनुमान अक्षुण्ण है ।।१५।।
[आगमप्रमाण से सर्वज्ञसिद्धि] १५ श्रीं कारिका में यह बताया गया है कि आगम (जैनागम) से भी सर्वज्ञ की सिद्धि हो सकती है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है