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स्याः क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
एकत्यादिसंख्यायोगादपि तथा, 'एकः' शब्दः, द्वौ शब्दो, बहवः शब्दा; ' इति प्रतीतेः । न चाधारसंन्योपचारात् तथाव्यपदेश इति युक्तम् आधारस्यकत्वाद् बहुप्वप्येकत्वव्यपदेशापत्तेः । विषयसंख्योपचारे घ गगना - 5ऽकाशयोमशब्देषु बहुत्वव्यपदेशानापत्तिः, गगनलक्षणम्च विषयस्यैकत्वात् । न स्याच्च ‘एको गोशब्दः । इशि स्वप्नेऽपि अतीतिः, वामनकत्वात । अपिच, घटादाविव निरूपचरितमेच शब्द एकत्वाधिक प्रतीयते, परम्परा सबन्धेन चलक्षायेन वा तदप्रत्ययात् । गतेन 'यथाऽविरोधं संख्योपचारः । इति पदाथै पत्यवादकत्यादिकम् , बुद्रिविशेषयिषवरूपमेव
का अनुभव कर पृष्प से कल देर जान पर जा पुनः गन्धानुभव होता' म समा भी यह प्रत्यभिज्ञा होती है, कि य हे निकट जो गन्ध गृदीन असा शायद पुपए में गली दूर पर भी ग्रीन हो किन्तु चम्पक के अधयों का निगम और न अवयवों के सम्पर्क से चएफ. के. निर्गत अवययों की रिक्तता की प्रति मानने पर उक्त प्रत्यभिक्षाओं की पति नहीं हा सकती क्योंकि म चम्पक और गानुक अश्यों में पुष होनाल, बम्पक में भेद होने के कारण उन के गाध में श्री मंद होता है। अस्यय अवप्रया में मंद होने के कारण चम्पक
और उस से निर्गत अवयवों के गन्ध में भी भंद होता है। अत: चम्पक के विषय में यही मानना उचित है कि चम्पक के अवयव उस से निर्गत नहीं होत किन्तु चम्पक अपने अवयवों के साथ अपने स्थान में समान रूप में अवस्थित रहता है । किन्तु उस के से परिणाम उत्पन्न होते हैं जो देर तक फेल कर चम्पक के गन्ध का अनुभव उत्पन्न करते हैं। यही बात शब्द के विषय में भी मानना उचित है क्योंकि सा स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है कि शब्द अपने स्थान में यथापूर्व अवस्थित रहता है फिर भी विभिन्न दिशाओं और अवान्तर दिशाओं में उस की व्या तिरूप उसका परिणाम उत्पन्न होता और इसीलिये एक ही शब्द विभिन्न दिशाओं में विभिन्न पुरषों द्वाग गृहीत होता है।
व्याशाकार का याहना है कि शब्द द्रव्यान्मक यह उन की कोरा कल्पना नहीं है। फिन्तु यह विषय आगमनमामूलक है, जैन आगमों में शब्द द्रा होने का कहा गया है ।
[ एकलादि संख्या के योग से शब्द में द्रव्यत्व सिद्धि ] ___ एकम्य आदि संख्या के सम्बन्ध में भी द्रव्यत्व की मिद्धि होती है क्योंकि एक. द. दो शब्द, बहुन शब्द इस प्रकार की प्रतीतियों से शब्द में रकत्वादि मख्या मित्र है। संख्या गुणर रूप है और गुण द्रध्य में ही आश्रित होता है, इसशिपः संख्या का आयय होने से शब्द को ध्यात्मक मानना आवश्यक है। आश्रय की संख्या से शब्द में संख्या के उक्तव्यबहार की उपपत्ति नहीं की जा सकती क्योंकि न्याय रत में उस का आश्रय आकाश एक है, अन उस की मंख्या से द्वित्व, बहुत्य आदि के व्यवहार का उपपादन अशक्य है। प्रत्युत, आश्रय की मरख्या मे शब्द में संख्या व्यवहार का ममर्थन यापन पर आश्रय के पक होने से बहुत शादों में भी पकत्व व्यवहार की आपत्ति होगी। शतप्रतिपाद्य अर्थ की संख्या का भी शब्द में गौण ध्यवहार नहीं माना जा सकेगा क्योंकि ऐसा मानने पर आकाश के एक होने से उस के बोधक 'भगन आकाश व्योम' आदि शब्दों में भी बहुत्व व्यवहार की अनुपपत्ति होगी । और गो शब्द से प्रतिपाध गौ के असंख्य होने से ‘गोशब्दः एकः' इसप्रकार गो शब्द में एकत्व प्रतीति की स्वप्न में भी उपपत्ति न हो सकेगी।