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प्रस्तावना]
प्रस्तुत खंड में स्तबक ९-१०-११ का समावेश किया गया है।
९ सयक में प्रारम्भ में मोक्ष एवं मोक्ष के उपाय की चर्चा की गयी है । मू लग्रन्थकारने यहाँ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और सम्यग्दृष्टि जींय की भवसमुद्र के बारे में संवेग-वैराग्यगर्भित विचारणा का हृदयंगम वर्णन किया है उस के बाद श्लोक २२ से ज्ञानयोग से मुक्ति प्राप्त होने का जो पहले स्तबक के २१ वी कारिका से कहा गया था उस का स्पष्टीकरण किया गया है।
उपाध्यायजी म. ने चौथी कारिका की व्याख्या में भिन्न भिन्न मतों के अनुसार 'मोक्ष क्या है.' यह दिखा कर उन की पूरी समालोचना कर के जनमतानुसार शुद्धात्मस्वरूपावस्था रूप मुक्ति का समर्थन किया है । उपरांत ज्ञान क्रिया का समुच्चय ही मोक्षोपाय है इस का समर्थन करते हुए ज्ञान से ही मोक्ष मानने वाले वेदान्त दुर्नय की तथा सम्यकक्रिया मात्र को मोक्षोपाय मानने वाले पातञ्चल मत की तथा ज्ञान-कर्म के तुल्ययात समुच्चय से मोक्ष मानने वाले भास्करीय आदि मत की समालोचना प्रस्तुत की है।
उस के बाद वस्त्रादि को मुक्ति के प्रतिकूल मानने वाले दिगम्बर मत का भी (प्र. २८) विस्तार से निरसन किया गया है ।
पाँचवी कारिका की व्याख्या में सम्यक्त्व के शम-संवेगादि लक्षणों का मुंदर विवेचन है 1 ११ वी कारिका की व्याख्या में चार गति में कैसा दुख होता है यह दिखाया है । २८ बी कारिका की व्याख्या में शुद्ध चारित्र से केवलज्ञान की प्राप्ति के विवरण में धर्म-शुक्लध्यान का सुंदर विवेचन दिया है । २६ वी कारिका की व्याख्या में-सिद्धों को मुक्ति में 'चारित्र होता है या नहीं' इस चर्चा का विस्तार किया गया है । २५ वी कारिका की व्याख्या में, योगाचार्य के मतानुसार इच्छा-शास्त्र-सामर्थ्य योग तथा धर्मसंन्यास-योगसंन्यास आदि विषय का निरूपण हैं ।
धे बतमक में मू लग्रन्थकारने सर्वज्ञ सिद्धि के बारे में प्रथम ११ कारिकाओं में पूर्वपक्ष और उस के आगे उत्तरपक्ष किया है । उपरांत सर्वज्ञ के अभाव में बंद के द्वारा धर्माधर्मव्यवस्था का असभव विस्तारसे कहा गया है । उस के बाद आगम प्रमाण न मानने वाले बौद्धों के मत का ४८ वी कारिका से उपन्यास कर के ५० वी कारिका से विस्तार के साथ आगम के प्रामाण्य का और उसे ज्ञानोपाय मानने का निरूपण किया है एवं ६१ वीं कारिका से, आगम में विसंयाद की शंका के निरसन के लिये विषयशुद्धि का भी निरूपण किया गया है।
___उपाध्यायजी महाराज ने इस स्तबक की व्याख्या विस्तार से की है। सर्वसिद्धि के प्रकरण में मीमांसक कुमारिल के शोकवार्तिक की कारिकाओं को पूर्वपक्षमें उद्धत कर के विस्तार से उसका खंडन किया है. इस प्रकरण की पृष्ठभूमि सम्मतितर्क की व्याख्या है। प्रसंगतः इम में पृष्ठ १५ से १३ में पूर्वपक्ष की ओर से अभाव हेतुता विचार किया गया है । पृष्ट २१ से २७ तक पूर्वपक्ष की ओर से वर्णात्मक वेद के नित्यत्र का उपन्यास किया है ।