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________________ प्रस्तावना 'शासबासमुच्चय' ग्रन्थ के नाम के प्रारम्भ में 'शास्त्र' शब्द है। सर्व जीवों के हित का शासन आदेश करने वाले वाक्य या वाक्यसमूह को शास्त्र कहा जाता है । इस व्याख्या के अनुसार सर्वज्ञभगवंत का विधि-निषेधकारक वचन ही सच्चा शास्त्र है । यदि पूछा जाय कि शास्त्र का मुख्य प्रयोजन क्या है तो उस का उत्तर यह है कि अपने दुर्गुणों का-दोषों का दमन-उन्मूलन यही शास्त्र का प्रयोजन है । जिस वचन से दुर्गुणों की-रागद्वेष की वृद्धि होती हो वह वचन उस के लिये शास्त्र नहीं होता । अधिकांश विद्वानों की 'सर्वज्ञ वचन ही शास्त्र है,' इस बातमें सम्मति होने पर भी सब अपने अपने सम्प्रदायों के ग्रन्थों को ही सर्वज्ञवचनात्मक 'शास्त्र सिद्ध करने के लिये तत्पर रहते हैं । और आज तो ऐसा युग आया है कि शास्त्र के बुट्टे को भी न जानने वाले लोग मतावेश में आकर उनके अपने ही वचन को शास्त्र या भगवद्वाणी घोषित करने में जिंदगानी व्यतीत कर देते हैं । ऐसी स्थिति में भगवद् हरिभवमुग्मिहाराज का यह ग्रन्थ अतीव मार्गदर्शक बन सके ऐसा है । __ इस ग्रन्थ में कहीं भी मतावेश का दर्शन नहीं मिलेगा । कुशाग्रबुद्धि अन्धकारने विविध सम्प्रदायों के शास्त्रों की मुख्य मुख्य वार्ता-सिद्धान्तों का ग्रहाँ समुचित एवं प्रामाणिक ढंग से निरूपण किया है । उसके बाद उन वार्ताओं में कितना औचित्य और अनौचित्य हैं यह मीमांसा की गर्या है । प्रारम्भ में अनौचित्य को दिखा कर बाद में उनमें कैसे औचित्य हो सकता है उस का स्पष्ट निदर्शन किया है । यद्यपि हरिभद्रसूरिजी जन्मतः ब्राह्मण है फिर भी मतावेश से दूर रहने के कारण उन का सम्पूर्ण झुकाव जैनदर्शन के सिद्धान्तों में ही रहा है । इस लिये जैन सिद्धान्त के प्रतिपादन के बाद उन्होंने उस का सातवे स्तवक में सयुक्तिक समर्थन ही किया है । अन्य अन्य स्तवकों में भी अन्ततः जैन सिद्धान्तों का ही समर्थन किया गया है। इस तरह, जन्मतः ब्राह्मण होने पर भी जैन सिद्धान्तों की शरण लेने वाले ग्रन्थकारने एक ओर जन्मतः जैन होने पर भी उदासीन रहने वाले सज्जनों को यह सबक दिया है कि तुम जन होते हुये भी जैन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ रहते हो यह बड़े शरम की बात है । वेद-पुराण आदि हजारो अन्यों के पढ़ने पर भी मानवजीवन के सही उत्थान के लिये जैन सिद्धान्तों का अध्ययन परम आवश्यक है। शाखवार्ताः ग्रन्थ पर 'स्थाबाद कल्पलता' संज्ञक व्याख्या निर्माण करके महोपाध्याय श्रीयशोविजय महाराजने इस अन्य को शोभा में चार चांद लगा दिये है । शास्त्रवारी मुल प्रन्य का विवरण करते करते महोपाध्यायजीने स्वतन्त्ररूप से अपनी व्याख्या में प्राचीन एवं नव्य न्याय में प्रसिद्ध अनेक वादस्थलों का अवतार किया है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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