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আমারা
विशेषतः पृ० ३९ से ४२ तक सम्बन्धि स्वभावता वस्तु का स्वरूप नहीं है -इस मत का निरसन किया गया है । पृष्ठ ४४ से प्रामाण्यवाद का उपक्रम कर के प्रभाकर मुरारिमिश्र और भट्ट के मत का निरसन किया है, नैयायिकमत का भी निरसन कर के जैनमतानुसार अभ्यासदशा में प्रामाण्य ज्ञान स्वतः और अभ्यास दशा में परतः होता है-इसकी उपपत्ति की गयी है । इस विषय में व्याख्याकारने एक सुंदर संग्रहश्लोक दिया है-(पृ. ६५) प्रामाण्य खत एव केवलदृशां ज्ञप्तौ गुणापेक्षणाद् उत्पत्तौ परतः, स्वतश्च परतश्छाद्मध्यभाजां पुनः । अभ्यासे च विपर्यये च विदितं झप्ता, समुत्पदातेत्वन्यस्मादिति शासनं विजयते जैनं जगज्जित्वरम् ।।
१६ घी कारिका की व्याख्या में उपमानप्रमाण की चर्चा में कुमारिल, नैयायिक, मिश्र, नध्य आदि के मतों का निरसन कर के उपमान का प्रत्यभिज्ञा में समावेश का सयुक्तिक प्रतिपादन किया है । १७ वे श्लोक की व्याख्या में असर्वज्ञत्व और वक्तृत्व में कारण कार्य भाव होने का निरसन किया है । पृष्ठ ८५ से ९८ तक चक्षु प्राप्यकारित्ववाद का खंडन किया है। पृ. ९. मे १६ तक जारस के सा: में अन्नामहेता विचार किया गया है । पृ. १८८ से ११० में योगियों के या केवली के प्रत्यक्ष में मन की करणता का प्रतिषेध किया है । घ. १३४ से १४८ तक वर्णात्मक वेद के नित्यत्वका निरसन किया है। प्र. १४५ से १७२ में नैयायिक अभिमत शब्दमें गुणव का निरसन कर के द्रव्यत्व का स्थापन किया है ।
इस स्तबक के अन्त में (प, १९६ से) दिगम्बर को अनभिमत केलि के कवलाहार का, अनेक प्राचीन-नवीन युक्तियों का उपन्यास कर के विस्तार से समर्थन किया है और प्रवचनसार के व्याख्याकार अमरचन्द्र, न्यायकुमुदचन्द्रका प्रभाचन्द्र एवं सर्वार्थसिद्धि व्याख्याकार आदि के मतों की विस्तृत समालोचना की गर्या है ।।
११ थे स्तबक में मूलग्रन्थकार ने, शब्द अर्थ के वीच तात्विक सम्बन्ध का निषेध कर के अपोह को शब्दवाच्य मानने वाले बौद्धमत का विस्तार से निरसन किया है। (कारिका १ से २९)
इस की व्याख्या में शब्द का वाच्यार्थ क्या है इस विषय में भिन्न भिन्न मतों का उल्लेख कर के उन सभी का निरसन किया है, अपोहवाद का सविस्तर खंडन कर के तात्विक सम्बन्ध की उपपत्ति की गयी है । इस प्रकरण में व्याख्याकार ने सम्मतितर्क के दूसरे खंड के प्रारम्भिक अंश का पूर्णतः उपयोग किया है।
उस के बाद मूलप्रन्थकारने कारिका ३० से ४८ तक एकान्त ज्ञानवादी एवं एकान्त कियावादी दोनों का खंडन कर के ज्ञान-क्रिया उभय के मिलने से मुक्ति होने का समर्थन किया है ।
व्याख्याकारने ९ वे स्तबक में ही इस विषय का अधिक विस्तार कर दिया है, अत एव यहाँ ज्यादा विस्तार नहीं किया है, फिर भी ४८ वी कारिका की व्याख्या में उभय हेतुता का अच्छा विचार उपस्थित किया है। ज्ञान प्रदीपतुल्य है, तप है सावरणी से प्रमार्जन करने तुल्य, और संयम द्वारपिधान तुल्य है । ये तीनों आत्मगृह की शुद्धि में एक साथ आवश्यक है-यह सुंदर बात पृ. ३०१-३०२ में की गयी है। कारिका ४५. से मूलप्रन्धकारने मुक्ति में जन्म-जरा-मृत्यु-रोग-शोकादि के अत्यन्ताभाव का एवं शाश्वत सुख का सुंदर वर्णन किया है ।