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________________ ५४ ] [शास्त्रबार्ता० स्त० १०/१५ नैयायिकनये तु स्यादप्ययं दोषः, पुरोवर्तिविशेष्यत्वस्य रजतत्वादिप्रकारत्वस्य चानुव्यवसायप्राह्यत्वाभ्युपगमात् , पुरोवर्तिन इदंत्वेन रजतत्वादिनाप्युपनयवशात् भानसंभवात् , विशेष्यत्वादेरनुपस्थितस्याऽप्रकारस्वेऽपि विशेप्यतया रजतादिमत्त्वे सति पकारितया रजतत्वादिमत्त्वस्य प्रामाण्यस्य सुग्रहत्वात् । न चेदंत्ववैशिष्ट्यं पुरोब तिनि न भासत इति वाच्यम् विशेप्यतायां पुरोवर्तिनः स्वरूपतो भानानुपपत्तेः, तादृशविशेषणज्ञानाभावात् , समानाकारविषयक ज्ञानस्यैवोपनायकत्वात् ; यद्विशेष्यकयत्प्रकारकज्ञानत्वावच्छेदेन प्रामाण्यसंशयस्त धर्मविशिष्टं तत्प्रकारक एव संशय इति नियमात्, प्रकृते प्रामाण्यसंशयोत्तरं 'रजतमिदं नवा' 'द्रव्यं रजतं नवा' इत्याद्यनियमापोहेन 'इदं रजतं नवा' इत्येवका विभाग नहीं होता किन्नु विषयांश में ही प्रमाण-अप्रमाण का विभाग होता है । कहा भी गया है कि 'भावात्मक प्रमेय (ज्ञानांश) की अपेक्षा से प्रमाणाभास का अपलाप होता हैं और बानप्रमेय की अपेक्षा से प्रमाण पवं प्रमाणाभास दोनों होते हैं।' इस कथन में भावात्मक प्रमेय का तात्पर्य शान में है और बाह्यप्रमेय का तात्पर्य मानभिन्न रजतादि में है। इस कथन का सारांश यह है कि शान स्वांश में सदा प्रमाण ही होता है, कभी अप्रमाण नहीं होता, और विषयांशा में कमी प्रमाण और कभी अप्रमाण होता है। [नैयायिक के मत में संशयानुत्पत्ति का दोष] नैयायिक के मत में ज्ञान में प्रामाण्यसंशय की अनुत्पत्तिरूप दोष संभव है क्योंकि उन के मत में पुरोवर्ती रजत में रजप्तत्व का ज्ञान होने पर उस शान के अनुव्यवसाय से उस शान में विद्यमान प्रामाण्य का ग्रहण हो सकता है, क्योंकि पुरोवर्ती में जो जतत्वज्ञान होता है उस में विद्यमान प्रामाण्य 'पुरोतिरजतविशेष्यक रजतत्त्वप्रकारकज्ञानत्य 'रूप है। इस की कुक्षि में प्रविष्ट विशेप्यता, प्रकारता और ज्ञानत्व तीनों न्यायमतानुसार अनुव्यवसाय से प्राय है और पुरोयी वस्तु दिव और रजतत्यरूप से उपनय सन्निकर्ष से वेध है. पयं रजतत्व स्वरूपन: उपनयवेध है। कहने का आशय यह है कि पुरोत्री में रजतत्वज्ञान का अनुव्यवसाय से एरोवतिरजतविशेष्यक रजतत्वप्रकारक ज्ञानत्यरूप से ग्रहण करता है । उस में विशेष्यता, प्रकारता और ज्ञानत्व का लौकिक ज्ञान होता है तथा पुरोवर्तिरजत का एवं रजतत्य का उपनीत भान होता है। इस प्रकार न्यायमत में ज्ञानगतप्रामाण्य, बान के अनुव्यवसाय से ही विदित होता है । अतः असुव्यवसित कान में प्रामाण्य का संशय नहीं हो सकता। प्रामाण्यज्ञान में विशेष्यतादि का ज्ञान सम्बन्धरूप से] यद्यपि यह प्रश्न हो सकता है कि-'प्रामाण्य की कुक्षि में विशेष्यता एवं प्रकारता प्रकाररूप से प्रविष्ट होती है अतः प्रामाण्यज्ञान में प्रामाण्यघटक प्रकारता और विशेष्यता का प्रकार रूप में ही भान होना आवश्यक है। किन्तु यह ज्ञान के अनुव्यवसाय में संभव नहीं है क्योकि तत्प्रकारकबुद्धि मे तद विषयक ज्ञान के कारण होने से प्रकारता-विशेष्यता को प्रकाररूप में ग्रहण करनेवाले कान के पूर्व प्रकारता-विशेष्यता का शान अपेक्षित है, जो शान के जन्म काल में नहीं रहता अतः ज्ञानग्रहकाल में प्रामाण्य ग्रह कैसे संभष हो सकता है ?'किन्तु इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि रजतषिशेव्यक
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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