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________________ [ शास्त्रवा० स्त० १०५१ अत्रापि सौगतोदितविचारेऽपि अवते समादधति वृद्धा-सिद्धान्तपारीणाः । किम् ! इत्याह-सिद्ध प्रतिष्ठितम् , अव्यभिचायपि-नियमबदपि लोके जगति गुणादि विज्ञानं-गुण-दोषविज्ञानम् सामान्येन सामान्यतोदृष्टानुमानरूपप्रज्ञया, न तु साक्षात्कारेण, महात्मनां प्राज्ञानाम् ॥५१॥ __ अत्रैव हेतुं दर्शयतितन्नीतिप्रतिपक्ष्यादेरन्यथा तन्न युक्तिमत् । विशेषज्ञानमप्येवं तद्वदभ्यासतो न किम् ? ॥५१॥ तनीतिप्रतिपत्त्यादेः दिग्नागाचायन्यायानुसरणादेः 'यद् वृद्धभ्यायानुसारि विज्ञान तद् गुणपूर्वकम्' इति व्याप्तेः, अन्यथा तत्-नीतिपतिपत्त्यादि न युक्तिमत् , अप्रेक्षापूर्वका रिनीतित्वात् । सामान्यसिद्धी विशेषज्ञक सिपाह-विशेषज्ञानमपि अधिकृते पुसि विशिष्टगुणज्ञानमपि एवम् = उक्तमज्ञादिशा, तद्वत् सामान्यगुणवत् अभ्यासतो-न किम् !-भवत्येव साध्यतल्लिमायनुमानपरम्परापृष्ट अनुमान से गुण-दोन का व्यवस्थित और अव्यभिचरित शान होता है। अत: यह कहना ठीक नहीं है कि सर्वनता-असर्वशता दोपधता और निर्वाषता आदि का ज्ञान प्राप्त करना शक्य नहीं है ॥५०॥ [विज्ञान में गुणपूर्वकत्व साधक अनुमान ] ५१ वीं कारिका द्वारा पूर्व कारिका में उस. विषय के समर्थक हेतु का प्रतिपादन किया गया है___ आचार्य विग्नाग की नीति के अनुसरण के आधार पर विज्ञान में गुणपूर्वकत्व की प्रतिपत्ति-सिद्धि हो सकती है। अर्थात् इसप्रकार सामान्यतः अनुमान किया जा सकता है कि अमुक विज्ञान गुणपूर्वक है, क्योंकि आचार्य दिग्नाग की नीति के अनुरूप है । जो भी त्रिज्ञान वृद्ध विद्वान पुरुषों की नीति के अनुरूप होता है वह गुणपूर्वक होता है यह व्याप्ति है । यदि यह व्यामि न मानी जाएगी तो दिग्नाग की नीति के अनुरूप होने वाली प्रतिपत्ति भी युक्तिमगत न हो सकेगी, क्योंकि वह उक्त व्याप्ति की अभान दशा में, प्रेक्षापूर्वकारि यानी सदसत् के विधेक से कार्य करने की प्रकृतिवाले पुरुष की नीति के अनुरूप न होकर विपरीत नीति के अनुरूप होगी । आचार्य दिग्नाग चौद्धसम्भदाय के सर्वमान्य मनीषी हैं। अतः उन की नीति के अनुरूप उत्पन्न विज्ञान में गुणपूर्वकत्व की उपेक्षा धौर भी नहीं कर सकते । फलत: उक्त ध्याप्ति के बल से सामान्यरूप से यह अनुमान निर्वाधरूप से सम्भव हो सकता है कि विद्वज्जनों के न्याय के अनुरूप विज्ञान गुणपूर्षक होता है । [ परमप्रकृष्ट गुणसाधक अनुमान ] कारिका के उत्तरार्ध में यह बात बताई गई है कि जैसे उक्त व्याप्ति के बल से सामान्यरूप से विज्ञान में गुणपूर्वकत्व की सिद्धि होती है उमीप्रकार उपर्युक्त व्याप्ति के बल से विशेष शान भी हो सकता है। अर्थात् अधिकृत ध्यक्ति में विशिष्ट गुण का शान भी हो सकता है। यही बात " अभ्यासतो न किम् " ? इसप्रकार प्रश्न की मुना में कही गयी है । जिस का आशय यह है कि अभ्यास से अर्थात् विशिष्ट गुणरूप साध्य के लिङ्ग के पुन: पुन: शान से अधिकृत पुरुषं में विशिष्टगुण का अनुमान क्यों नहीं हो सकता ? आशय यह है कि विशिष्ट
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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