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स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
[ १८५ वार्तान्तरमाहअत्रापि प्राज्ञ इत्यन्य इत्थमाह सुभाषितम् । इष्टोऽयमर्थः शक्येत ज्ञातुं सोऽतिशयो यदि ॥१८॥
अत्रापि-अनन्तरोदितवार्तायामपि, प्राज्ञः पण्डितः, इति-अम्मादेतोः, अन्यः-सौगतः, इत्थं - वक्ष्यमाणनीत्या आह 'सुभापितम्' इत्युपहरति । इष्टोऽयमर्थः-'सर्बहेन छभिव्यक्तात्' इत्यादिमोक्तः, शक्यंत ज्ञातुम् स:-अर्थः 'अर्थ सर्वज्ञः, अयं च तहामन्यतार्थ आगमः' इत्येव विभक्त स्वभाव: यद्यतिशयो-गुणविशेषः स्यात् । ।।४८।। एतदेवाह-.. अयमेव न चेत्यन्यदोपो निर्दोपतापि वा। दुर्लभवात् प्रमाणानां दुर्योधेत्यपरे विदः ॥१९||
अयमेव सर्वज्ञः, न च अयं न सर्वज्ञश्च, इति एवम् अन्यदोषःसंतानान्तरवर्तिदोषः, निर्दोषतापि वासंतानान्तरवर्तितोपाभावोऽपि बा, प्रमाणान परचेतसाम् दुर्लभत्त्वान् अप्रत्यक्षत्वात् दुर्बोधा=दुर्ज्ञाना, इत्यपरे-सौगताः विदुः-जानन्ति ।।४।।
अत्रं समाधानवान्तिरमाद--.. ____ अत्रापि बने बृद्धाः सिद्धमव्यभिचार्य पि ।
लोके गुणादि विज्ञानं सामान्येन महात्मनाम् ।।५।।
[सर्वज्ञ और तदुरचित आगम की प्रतीति दुर्लभ चौद्धयादी] १८ वी कारिका में पूर्वकारिका में वर्णित विषय के सम्बन्ध में पक अन्य बात कही गयी है जो इसप्रकार है
इस कारिका द्वारा ग्रन्थकार ने एक प्रकार का उपहास करते हुए यह कहा है कि पुक्ति विषय में भी अपने को प्राक्ष मान कर बौद्ध का यह कहना है कि सर्वज्ञ पुरुष द्वारा अभिः ध्यक्त समग्र अर्थजात के प्रतिपादक आगम से धर्म-अधर्म की व्यवस्था होती है यह बात तब ज्ञात हो सकती है जब कोई ऐसा अतिशय यानी मा विशिष्ट गुण हो जिम के द्वारा यह निश्चय किया जा सके कि 'अमूक प्रक्ति सर्वश है और अमुक आगम उस के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है' ॥ ४८ ।।।
४२ वीं कारिका द्वारा अन्य कतिपय बौद्ध विधानों का यह मन्तव्य प्रगट किया गया है कि यत: प्राण (=पर चिसवृत्ति ) दुर्लभ-दुखीय होता है अत: यह विषय अत्यन्त दुज्ञेय है कि 'अमुक व्यक्ति सर्वज्ञ है और अमुक सश नहीं है' । अgक सन्तान ( शान स्वाह) दोषयुक्त है और अमुक सन्तान निषि है।
दोनों कारिकाओं से बौद्ध विद्वानों का यह आशय प्रकट किया गया है कि लश और उस से प्रणीत आग की पहचान कठिन है। अतः धर्म अधर्म की व्यवस्था को सर्वशमुलक बताना एक दुष्कर कार्य है ॥ १ ॥
५० ची कारिका द्वारा सर्वश के सम्बन्ध में बौद्ध द्वाग प्रकट किये गये विचारों का पक समाधान बताया गया है ।
बोहों द्वारा प्रस्तुत किए गये विचार के सम्बन्ध में सिद्धान्त वेगा कैग विद्वानों का कहना है कि मंसार में ऐसे अनेक महात्मा-प्राशजन हैं जिन्हें प्रत्यक्षप्रमाण से नहीं किन्तु सामान्यतो.