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स्मा. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
[ १५७ स्पशोत्पत्तिकालेऽपि स्पर्शादिग्रहणप्रसङ्गात् , एकस्यामेव व्यक्तौ कालमेदेनानन्तस्वाचसंभवेन तावत्त्वाचनिवेशापेक्षया महत्त्वोद्भूतस्पर्शयोरुभयोरेव निवेशौचित्याच्चेति विग ।
एवं चोद मूतरूपाभावाच्छन्दस्य मूर्तद्रव्यत्वे वायुपिशाचादिवद् बहिरिन्द्रियपत्यक्षत्वमेव न घटते । विभुत्वे तु नित्यत्वाजन्यत्वमेव न स्यादिति मीमांसकमतप्रवेशः । कर्णावच्छिन्नश्रोत्रसम्बायस्य शब्दग्राहकप्रत्यासत्तित्वाच्च न तस्य द्रव्यत्वम्, कर्णावच्छिन्नश्रोत्रसंयोगस्य तथात्वे श्रोत्रेण द्रव्यान्तरग्रहणप्रसङ्गादिति ।
सेयं कदक्षरमयी बत ! गीः परेषां धर्मव्यथेव विदुषां हृदय दुनोति ।
कुर्मस्तवन गिरमासमताद् वितत्य पीयूषवृष्टिसदृशं प्रतिकारसारम् ॥१॥ प्रत्यक्षविषयत्व) को विशेषण मानने पर स्पर्शगुणा और उसके आश्रयद्रक्ष्य का महग्रहण न हो सकेगा क्योंकि स्पर्श के आश्रयन्त्रव्य का पूर्व में स्पार्शन हुये विना यह वाचप्रत्यक्षविषयता से विशिष्ट न होगा ! अतः स्पर्श के साश संगमस्वा मनत्यमविष यताविशिष्ट का समवायरूप प्रत्यासत्ति न होने से द्रव्य के साथ उसका स्पार्शन न हो सकेगा और यदि त्या चत्व को उपलक्षण माना जायगा तो पाकजस्पर्श के जन्मकाल में उसके स्पार्शन की आपत्ति होगी क्योंकि पाकपूर्यवर्ती स्पर्श के साथ द्रव्य का स्पार्शन पाक से पहले हुआ रहता है। अतः पाकजस्पर्श के जन्मकार में उसका स्पार्शन न होने पर भी बह त्यानत्व से उपलक्षित रहता है। अत एव उस काल में भी पाकजस्पर्श के साथ त्वक्रमयुक, त्याचबोपलक्षित का समवायरूप यक की प्रत्यातत्ति हो सकती है।
उपर्युक्त दोष के अतिरिक्त. यह भी द्रष्टव्य है कि कालभेद में एक व्यक्ति का भी त्वाचप्रत्यक्ष अनन्त होता है, अत: विनिगमनाविरह से सभी स्वाच का प्रन्यासति के कलेवर में प्रवेश होने से महान् गौरव होगा, इमलिये उस की अपेक्षा महत्व और उदभूतस्परी का प्रवेश कर पूर्णोक्त प्रत्यासत्ति को स्वीकार करने में ही लाघय है 1
उक्त विचार का सार यह है कि शब्द में उद्भूतरूप तो होता नहीं, अत: उसे मृतव्रत्य मानने पर वायु, पिशाच आदि के समान बहिरिन्द्रिय से उसका प्रत्यक्ष न हो सकेगा और यदि विभु माना जायगा तो नित्य हो जाने से जन्य न हो सकेगा, अतः शब्द को द्रव्य मानने पर मीमांसक मत में प्रवेश की आपत्ति होगी।
शब्द को द्रव्य मानने में दूसरा बाधक यह है कि शब्द का ग्रहण कर्णान्छिन्न श्रोत्रसम वायरूप प्रत्यासत्ति से होता है। यदि बह द्रव्य होगा तो श्रोत्र में समत न हो सकने से उक्त प्रत्याति से गृहीत न हो सकेगा। यदि उक्त समवायझर प्रत्यात्ति से उसे ग्राम न मान कर कर्णावच्छिन्न श्रोत्रम योगरूप प्रत्यासत्ति से ग्राह्य भाना जायगा तो श्रोत्र का संयोग अन्य द्रव्य में भी होने से श्रोत्र से अन्य द्रक्ष्यों के भी ग्रहण की आपनि होगी ।
[शब्दगुणत्ववादी नैयायिकमत का प्रतिकार-उत्तरपक्ष ] शब्द के सम्बन्ध में नैयायिकों की उक्त स्थापना के विरोध का उपक्रम करते हुए व्याख्याकार का कहना है कि-शब्द को क्षणिक अन्य बताने वाले नयायिकों की उक्ति का प्रत्येक अक्षर कुत्सित है, वह विद्वानों के हृदय को धर्मजनित पीडा के समान उद्विग्न करती है।