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________________ [ शाखार्त्ता० स्त० ११ / ७-८ २३६ ] भावलक्षणं गोव्यक्तीनाम् तदन्येभ्यः = अश्वादिव्यक्तिविशेषेभ्यः तथाऽस्थितेः = भिन्नत्वाऽव्यवस्थितेः, गोत्वस्य व्यापकत्वात् तत्त्वेऽपि तत्र गोव्यक्त्याधेयत्वस्य स्वभावभेदनियम्यत्वादिति भावः ॥ ६ ॥ स्वभावभेदसवे दोषमाह सति चास्मिन् किमन्येन शब्दाचद्वत्प्रतीतितः । तदभावे न तद्वत्वं तद्भ्रान्तत्वात्तथा न किम् ? ॥ ७ ॥ सति चास्मिन्= स्वभावभेदे, किमन्येन - गोत्वादिना कल्पितेन ? शब्दात् = गवादिशब्दात्, तद्वत्प्रतीतितः = विशिष्टभेदवद्व्यक्तिप्रतीतेः । पराभिप्रायमाह - ' तदभावे - गोत्वाभावे न तद्वत्त्वम् =न गोवाधारस्वभावमेदवत्त्वम्, तत एव तद्भेदोपपत्तेः । अत्रोत्तरम् - तद्भ्रान्तत्त्वात् तस्य भेदस्य आन्तत्वात् = कल्पितत्वात् तथा न किम् १ = तथाध्यवसायवशेन कल्पितं तद्वत्त्वं न कथम् ? | } वास्तवे स्मिन्न दोषो न पुनर्भ्रान्त इत्यभिप्रायः ॥ ७ ॥ एतदेव व्यतिरेक निरासेन द्रढयति अभ्रान्तजातिवादे तु न दण्डाद्दण्डिवद्गतिः । तद्वत्युभयसांकर्ये न भेदाद्वोऽपि तादृशम् ॥ ८ ॥ होते हुए भी गोत्व में गो व्यक्ति वृत्तिता गो व्यक्ति के स्वभावभेद से नियन्त्रित होती है. मव आदि में वह स्वभावभेद न होने से उनमें गोत्व की आधारता नहीं होती । किन्तु स्वभावभेद से गो का ऐसा नियमन मानना दोषपूर्ण है ( यह अगली कारिका में स्पष्ट होगा ) ॥ ६ ॥ ७ वीं कारिका में पूर्व कारिका के चति दोष का स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। कारिका का आशय यह है कि [ स्वभावभेद द्वारा ही व्यक्तिबोध का आपादान ] यदि गोत्व के व्यापक होते हुए भी गो व्यक्ति में ही उस की आधारता के उपपादककप में स्वभावभेद की कल्पना की जायगी, तो उसी से गो शब्द द्वारा अश्व आदि से भिन्न गोव्यक्ति का बोध भी हो जायगा । अतः गांव की कल्पना निरर्थक हो जायगी। यदि जातिवादी का यह अभिप्राय हो कि 'गोल्थ के अभाव में गो व्यक्ति में गोत्वाधारतानामक स्वभावभेद सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि गोत्व का अस्तित्व होने पर ही अश्व आदि में रहते हुए गो व्यक्ति में ही उस के रहने के नियामक रूप में स्वभावभेद की कल्पना होती है - तो इस अभिप्राय से भी जातिवादी का लक्ष्य नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि गो व्यक्ति में गोत्व की आधारता का नियामक स्वभावभेद भ्रान्त यानी कल्पित है अतः उस से नियम्य गोत्व को भी आन्त कल्पित ही क्यों न मानना चाहिए ? - यह आपत्ति गोत्व को वास्तव मानने के पक्ष में है और यदि वह भ्रान्त कल्पित रूप में ही मान्य हो तब उस आपत्ति का कोई अवसर नहीं है क्योंकि गोत्व की वास्तविकता का निषेध ही बौद्धों को सिद्ध करना है ॥ ७ ॥ [ शब्दवाच्य वास्तवजाति मानने पर आपत्ति ] ८ कारिका में, पूर्वकारिका में उक्त विषय को ही उस से अतिरिक्त पक्ष का निरास करते हुए पुष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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