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स्था. क. टीका-हिन्दी विषेषन ]
[ २३५ सारूप्यात् प्रवृत्तावप्यनियमापत्तेः । तदेवम् 'अकृतसमयत्वात् ' इति हेतो सिद्धता, नाप्यनैकान्तिकत्य. विरुद्धत्वे । इति सिद्धम्-'अपोहकृत् शब्द: ' इति ।।
तदिदमाहवाच्य इत्थमपोहस्तु न जातिः पारमार्थिकी ! तदयोगाद्विना भेदं तदन्येभ्यस्तथाऽस्थितेः ।।६।।
इत्थं तात्त्विकत्याभावे अपोहस्तु-अपोह एव पाच्या शब्दप्रतिपाद्यः । अवधारणफलमाहन जातिः पारमाथिको अपिता मयादिरूपा चाया। कुतः ! इत्याह-तदयोगात= गोत्वादिजाते#दा-ऽमेदादिविकल्पेनाऽघटमानत्वात्। तथा विना भेदं स्वभावत एव गोत्वाधारस्व
भर्य की प्रतीति हो सकती है और न उसमें प्रवृत्ति ही हो सकती है। और यदि संस्कार के विषयभूत अर्थ के सारश्य से उससे असम्बद्ध बाझ अर्थ में प्रवृत्ति होगी तो प्रवृत्ति के संबंध में अनियम की प्रसक्ति होगी।
[ शब्द से बोध्य अर्थ अवास्तव-उपसंहार ] इस सन्दर्भ में अब तक की सर्चा का निष्कर्ष यह है कि यास्तव अर्थ में शब्दार्थत्वाभाव को सिद्ध करने के लिए जिस अकृतसमयत्व-संकेतकरणायोग्यत्व किं वा संकेतमहणायोग्यत्व रूप हेतु' का प्रयोग किया गया है, वह वास्तव अर्थरूप पक्ष में असिद्ध नहीं है। क्योंकि इस बात का विशद रूप से प्रतिपादन कर दिया गया है कि स्वलक्षणात्मक वस्तु ही पास्तय अर्थ है। और संकेत के क्रियाकाल में उसका अनुवर्तन न होने से वह संकेतकरण पर्व संकेतग्रहण के अयोग्य है। यह हेतु अनेकान्तिक और घिर भी नहीं है, क्योंकि इस हेतु में शब्दार्थत्याभाव की व्याप्ति निर्विवाद है। अतः बौद्ध का यह पक्ष पूर्णतया स्वीकारयोग्य है कि शब्द से वास्तव अर्थ का बोध नहीं होगा किन्तु विकल्प बुद्धि के विषयीभून नाम, जाति भादि से युक्त असत् अर्थ का ही बोध होता है।
उपर्युक्त बातों के आधार पर शब्द से अर्थबोध के विषय में यही सिद्धान्त प्रतिष्ठित होता है कि शब्द से प्रतिपाच अर्थ का बोध किसी भावात्मकरूप से न होकर अपोह यानी अतव्यावृत्तिकप से होता है। फलत: गो आदि शब्द से गो आदि अर्थ का बोध गोत्व आदि भावात्मक सामान्यरूप से न होकर अगोव्यावृत्तिरूप से होता है । इसीलिप 'गो' शब्द से न तो अश्व आदि अगो की प्रतीति ही होती और न उसमें मनुष्य की प्रवृत्ति ही होती है |
[स्वभावभेद से गोत्वाधारता का नियमन अशक्य ] छट्ठी कारिका में पूर्वकारिका में संकेतित विषय को स्पष्ट किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
यतः शब्दप्रतिपाद्य अर्थ की ताघिकता पूर्वोक्त युक्तियों से असिद्ध है अतः अगेह अतद्व्यावृति ही शब्दवाच्य है। अपोह को ही शब्दवाच्य कहने के परिणामस्वरूप यह सिद्ध होता है कि अकल्पित-वास्तविक जाति शब्दवाच्य नहीं है, क्योकि व्यक्ति से भिन्न अथवा अभिन्न किसी भी पक रूप में जाति सिद्ध नहीं हो पाती। दूसरी बात यह है कि जातिवादी के मतानुसार गो व्यक्ति में गोत्याधारता उसके स्वभावभेद के कारण होती है न कि अश्व आदि से भिन्न होने के कारण | क्योंकि अश्च आदि का भेद गोत्वाधारता की सिद्धि के पूर्व उसमें सिद्ध नहीं है। यतः गोत्व दैशिक विशेषणता सम्बन्ध से और कालिक सम्बन्ध से व्यापक है, व्यापक