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स्या. फ. टीका-हिन्दीविवेचन ]
{ ३२१ बसायाभावः कुतः प्रतिपन्नः ! 'आमागमादिति चेत् । तदाऽशेषकर्मशैलबन्नभूतशुभाश्यबसायोऽपि तत एबाध्यवसीयताम् । न ह्यतीन्द्रिय एवंविधेऽर्थेऽम्मदादेशि आप्तागमाहतेऽन्यद बलवत्तर प्रमाणमस्ति । न च दृष्टेष्टाऽविरोध्याप्तवचनमसत्तानुसारिजातिविक्रमपर्वाधामनुभवति, तेषां प्राप्ताऽप्राप्तत्वापादकमतगजविकल्पबदवस्तुसंस्पर्शित्वात् । तदुक्तं भर्तहरिणा-- "अतीन्द्रियानसंखेशारद पश्यन्गा पर शुषा से भागान, नाका ते नानुमानेन याध्यते ॥१॥” इति ।
न चाप्तबचन स्त्रीनिर्वाणप्रतिपादकमप्रमाणम् , सप्तमनरकमाप्तिप्रतिषेधकं च प्रमाणमिति वक्तुं शक्यम् , उभयत्राप्याप्तप्रणीतत्वादेः प्रामाप्यनिबन्धनस्याऽविशेषात् । न चैकमाप्तपणीतमेव न भवतीति वाच्यम् , इतरत्राप्यस्य सुवचत्वात , पूर्वापरोपनिबद्धाशेपदृष्टाऽदृष्टप्रयोजनार्थप्रतिपादकावान्तरवाश्यसमूका अभाव और देवपर्याय में ८ वे स्वर्ग तक गमन प्रकर्ष रूप वपस्य के दिखाई देने पर भी कोई हानि नहीं है, क्योंकि स्त्रीपर्याय में अधोगति का प्रकर्षरूप म्यापक के न होने से ऊर्ध. गति प्रकर्षरूप व्याप्य के अभाव की मिद्रि हो सकती है।' -किन्तु यह कथन भी उक्तरीति से स्त्रीपर्याय में मोक्षगमन की मयुक्तिकता सिद्ध होने से निरस्त होना है। उक्त के अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि स्त्रीयों में सप्तमनरकभूमि की प्राप्ति के कारणभूत अध्यवसान का अभाव किस प्रमाण से सिद्ध होता है? यदि आपतआग से, तो उसी में श्रियों में अशेषकर्मरूप पर्वत भेदन के लिए धनतुल्य अध्यषमाय की सत्ता का भी स्वीकार कर लेना उचित है, क्योंकि इस प्रकार के अतीन्द्रिय विपर्या के सम्बन्ध में हम जैसे स्थलदर्शी लोगों के लिए आगम को छोड़ कर दूसरा कोई बलवत्तर प्रमाण नहीं है । यतः दृष्ट-इन का अविरोधी आगमवचन असत् तर्क पर अबलम्बित जात्यात्मक (दृपणाभास स्वरूप) विकल्पों से बाधित नहीं हो सकता। क्योंकि वे विकल्प, प्राप्तत्त्र पर्व अप्रातत्य के आपादक मतङ्गज विकल्प के समान अवस्नुविषयक है। जैसा कि भर्तहरि ने कहा है कि-"जो महापरुष अतीन्द्रिय सेयभावों को आपति से देखते हैं उनका षचन अनुमान से बाधित नहीं होता ॥ १ ॥'
यह नहीं कहा जा सकता कि 'खी के मोक्ष का प्रतिपादक आगम का बचन भप्रमाण है, और सप्तमनरक की प्राप्ति का निषेध करने वाला बनन प्रमाण है ।' -क्योंकि दोनों ही वचनों में प्रामाण्य का प्रयोजक आमप्रणीतल्न समान रूप से विद्यमान है। यह कहना भी ठीक नहीं है कि 'स्त्रीमोक्ष का प्रतिपादक घचन आप्ताचित ही नहीं है क्योंकि यह बात स्त्री को सप्तमनरक प्राप्ति के निषेध बधन में भी कही जा सकती है। क्योंकि जैनागम पूर्वापर सम्बद्ध पर्व दृष्ट-अट अर्थरूप प्रयोजन के प्रतिपादक अवान्तर वाक्यों का समूहरूप होने से एक है इसी लिये किसी अवान्तर बाक्य को अप्रमाण मानने पर उससे बदित समृचे आगम में अप्रामाण्य की आपत्ति होगी ।
[ ज्ञानपरमप्रकर्ष में स्त्रीवृत्तिस्याभाव का साधन दुष्कर ] ___ इस सन्दर्भ में यह अनुमान भी कि-'ज्ञान का परमप्रकर्ष त्रो में नहीं होता, क्योंकि यह परमप्रकारूप है, जो परमप्रकर्ष होता है वह स्त्री में नहीं होता, असे-सप्तमनरक पृथ्वी में गमन का प्रयोजक अपुण्य (पाप) का परमप्रकर्ष-निरस्त हो जाता है। क्योंकि सही में