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शाखवार्ता० स्त० ११ / २४
हान्मकैकमहावाक्यरूपतयाहदागमम्यकत्वात् , अवान्तरवाक्यविशेषाऽप्रामाण्ये सर्वस्याप्यागमस्याऽप्रामाण्यप्रसक्तेः । एतेन "ज्ञानादिपरमप्रकर्षों न स्त्रीवृत्तिः, परमप्रकर्षत्वात् , सप्तमनरकपृथ्वीगमनाऽपुण्यपरमप्रकर्षकत्' इत्यपि निरस्तम् , मोहनीयस्थिति-स्त्रीवेदपरमप्रकपण च व्यभिचारात्; सामनरकपृथ्वीगमना पुष्यजातीयपरमप्रकपरवस्य हेत्वर्थस्ये च हेतोः पक्षाऽवृत्तित्वात् , आत्मपरिणामत्वजात्या तज्जातीयविदाक्षायां चोक्तदोषतादयस्थ्यात् । 'चारित्रप्रको न स्त्रीवृत्तिः, गुणप्रकर्षत्वात्, शुतज्ञानप्रकर्षचन्' इत्यत्रापि सम्यग्दर्शनप्रकण व्यभिचारः, ज्ञानप्रकर्ष विनापि चास्त्रिप्रकर्पस्य माषतुषादी सिद्धरवेनाऽप्रयोजकत्वं चेति न किञ्चिदेतत् । एतेन च “पुस्त्वेनैव लघुना मुक्तिस्वरूपयोग्यता, न तु गुरुणाऽक्कीवत्वेन, इति न स्त्रीणां मुक्तिः । इति कल्पनाप्यपास्ता, भव्यत्वेनैव सिद्धौ स्वरूपयोग्यत्वात् , कचित् कदाचिदितारकारविलम्पादेव काबिलग्यो । यदि य पुस्यापि मनुष्यत्वादिषद् ज्ञानादिमोहनीय और नौवेद की उत्कृष्टस्थिति होती है, अतः परमप्रकपत्यरूप हेतु मोहनीय की उत्कृष्टस्थिति और स्त्री वेद की उत्कृष्टस्थितिरूप परम प्रकर्य में, स्त्रीत्तिधाभाव का व्यभिचारी है । यदि कहै कि उक्त अनुमान में सप्तमनरक पृथ्वी में गमन के प्रयोजक अपुण्य के सजातीय परमप्रकर्मत्व को ही हेतु किया जाय तो, स्त्रीवेद के परमप्रकर्ष में स्त्रीवृत्तियाभावरूप साध्य के समान उक्त हेतु का भी अभाव होने से व्यभिचार नहीं होगा' -तो यह तो ठीक है किन्तु इस रूप में प्रयुक्त हेतु पक्ष में असिद्ध है। यतज्ञानप्रकर्षरूप पक्ष उक्त अपुण्य प्रकर्ष का सजातीय न होने से उसमें यह हेतु अविद्यमान है । और यदि आन्मपरिणामस्व रूप से उक्त अपुण्य के सजातीय परमप्रकर्षत्व को हेतु किया जायगा तो पक्षासिन्द्रि दोष का परिहार हो जाने पर भी पहले कहे गये व्यभिचार दोष ज्यों का न्यों बना रहेगा। वह इस प्रकार-स्त्रीवेद का परमप्रकर्ष भी आत्मपरिणामस्वरूप से उक्त अपुण्यप्रकर्ष का सजातीय ही है। अतः उसमें यह हेतु विद्यमान है तथा श्रीवृतित्याभावरूप साध्य अविद्यमान है।
यदि यह अनुमान किया जाय कि चारित्रप्रकर्ष गुण प्रकर्षरूप होने से श्रुतज्ञान के परमप्रक के समान स्त्री में अत्ति है तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि इस अनुमान में प्रयुक्त गुणप्रकत्वरूप हनु सम्यकदर्शन प्रकर्ष में स्त्रीवृत्तित्वाभाव का व्यभिचारी है । तथा ज्ञान प्रकर्ष के बिना भी चारित्र का प्रकर्ष मातुष मुगि आदि में सिद्ध है, अत: ज्ञान-प्रकर्ष में स्त्रीवृत्सित्य का अभाव चारियप्रकर्य में स्त्रीवृत्तित्वाभाव का अप्रयोजक है। अत एव स्त्रीमोक्ष के विरोध में उन्न प्रकार के अनुमान आदि के प्रयोग का प्रयास भी नहीं के बराबर है।
[क्लिबभिन्नत्वरूप स्वरूपयोग्यता का समर्थन ] इस सन्दर्भ में स्त्री-मोक्ष के विरोधियों का यह कहना कि-'मोक्ष के प्रति क्लिबभिन्नत्य की अपेक्षा पुरुष रूप से स्वरूपयोग्यता मानने में लाघव है, अत: पुरुषत्व को ही स्थ रूपयोग्यता मानना है और यह पुंस्त्वहीन होने से स्त्री में नहीं है, अतः स्त्री को म
मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जिस में जिस कार्य की स्वरूपयोग्यता होती है उसी में बह कार्य असान होता है'-परन्तु यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि पुंस्त्व की अपेक्षा भव्यस्व रूप से ही मोक्ष के प्रति स्वरूपयोग्यता उचित है, पुंस्त्व तो मभध्य पुरुष में भी रहता है और उसका मोक्ष नहीं होता, अतः पुंसस्वरूप से मोक्ष की स्वरूपयोग्यता स्वीकार नहीं हो सकती