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[ शास्त्रबार्ता स्त० ९ श्लो. ४
न च तादिदुःखस्य तपोरूपत्वेनाश्रयणीयत्वादयमदोषः अनशनादेधितपस आन्तरतपउपचयहेतुत्वेनाश्रीयमाणत्वात् , अन्याग्भृतस्य चाऽतपस्त्वात् , *"सो य तवो कायचो जेण मणोऽमंगुलं ण चिंतेह" इत्याद्यागमप्रामाण्यात् ।
"बाह्य तपः परमदुश्चरमाचरचमाध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहणार्थम् ।"
इति स्तुतिकृताऽप्युक्तत्वाच्च । कथं वा पात्राभावे ग्लान-दुर्वलाद्य पथ्याद्यानयनादिनोपष्टम्भः १ कथं वाऽन्यस्य भक्तपानादिप्रदानानुपपन्या दानधर्मानुग्रहः १ कथं वाऽलब्धिमतामशक्तानां प्राघूर्णकानां च लब्धिमद्भिः शक्तर्वास्तव्य श्रोपकारानुपपत्त्या न समत्वम् । इति ।
यति इस प्रकार वहां पानी छानने को बैठेगा तो प्रवचन का उपघात होने से बोधिबोज का उच्छेद होगा। दूसरी बात यह है कि गृहस्थ के वस्त्र से छाना हुना भी जल पूर्णरूप से निर्जन्तुक नहीं हो सकता । साथ ही जलस्थ जन्तुयों के सूक्ष्म होने से गृहस्थ वस्त्र से उनका पीडन भी होगा, एवं गृहस्थ द्वारा जलशोधन का पूरा प्रयत्न मी न हो सकेगा । यह भी कहना उचित नहीं हो सकता कि अचित्त जल का सेवन करने से यह दोष नहीं होगा, क्योंकि प्रचित्त जल में भी जीव को संसक्ति हो सकती है और करस्थजल में संसक्तजीव का प्रत्एपेक्षण-निरीक्षण करके संशोधन न हो सकने से उस जल का पान तथा उज्झन-त्याग करने पर संसक्तजीव के नाश रूप दोष की अनिवार्य प्रसक्ति होगी, किन्तु पात्र आदि ग्रहण करने पर पात्रस्थ जल से संसक्त जीव का प्रत्युपेक्षण-निरीक्षण से संशोधन सुकर होने से अहिंसा व्रत के अतिकमण दोष की आपत्ति न होगी ।-'तोनबार उद्धर्तित (उबाला हुमा) उष्णोदक का ही सेवन करने से यह दोष नहीं होगा', यह कथन भी उचित नहीं हो सकता क्योंकि प्रतिगृह में उपस्थित होते ही यति को तत्काल उक्त प्रकार के जल की प्राप्ति हो जाय-ऐसा नियम नहीं हो सकता, और यदि ऐसा जल प्राप्त भी हो जाय तो उससे तृष्णा की निवृत्ति न हो सकेगी, फलतः, तृष्णायुक्त अपकृष्ट कायबल वाले आधुनिक यति के आत्तध्यान का उच्छेद न होगा, जिससे यति को दुर्गति की प्राप्ति अनिवार्य होगी।
[ अभ्यन्तस्तप विरोधी बाह्यतप अग्राह्य ] यदि यह कहा जाय कि-'तृष्णामूलक दुःख तपोरूप होने से स्वीकार्य है अतः उक्त दोष नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अनशनआदि बाह्य तप आन्तर तप के उपचय कर हेतु होने से स्कीकार्य होता है किन्तु जो दुःख आन्तर तप के उपचय का हेतु नहीं होता वह तपोरुप न होने से स्वीकार्य नहीं हो सकता, जैसाकि-इस बात के प्रमाणभूत आगम का स्पष्ट उद्घोष है कि उस तप का अनुष्ठान करना चाहिये जिससे मन अमङ्गल चिन्तन न करे । इसका समर्थन स्तुतिकार से भी प्राप्त होता है क्योंकि उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है कि आध्यात्मिक तप की अभिवृद्धि के लिये अत्यन्त दुष्कर बाह्यतप का अनुष्ठान करना चाहिये।
यति के पात्र ग्रहण का विरोध करने वालों को यह भी सोचना चाहिये कि पात्र के अमात्र
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तच्च तपः कर्तव्यं न ममोऽमङगलं न चिन्तयति।