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स्वा० का टीका एवं हिन्दीविवेचन ]
एतेनैतत् निराकृतं यदुत्प्रेक्षितं परेण-"साक्षाद्वस्त्रग्रहणस्य न मुक्तिसाधनत्वम् , रत्नत्रयस्यैव साक्षात् तत्साधनत्वात नापि परम्परया. रत्नत्रयकारणत्वेन तद्ग्रहणस्य रत्नत्रयविरोधित्वात ; निष्परिग्रहत्वविरोधि सपरिवहमिति सकललोकप्रसिद्धम् , रूपज्ञानोत्पत्तेस्तम इव न च रत्नत्रयहेतुशरीरस्थितिकारणत्वेन वस्त्रादिग्रहणं परम्परया मुक्तिसाधनम, तदन्तरेणापि रत्नत्रयनिमित्तशरीरस्थितिसंभवात् इति"-आहारग्रहणेऽप्यस्य समानन्वेन प्रदर्शितत्वात् । विहिताहारग्रहणकर्मणः उत्तरगुणरूपतया तन्नान्तरीयकाऽऽज्ञाशुद्धभावविशेषस्यैव वा पारम्पर्येण मुक्तिहेतुत्वे तु वस्त्रादिग्रहणेऽप्येवं वक्तु' शक्यत्वात् । अत एव च 'साक्षात् पारम्पयेण या मुक्त्यनुपयोगि वस्त्रादिग्रहणं रागाद्युपचयहेतुः, तत् स्वीकुर्वन् यस्याभासो गृहस्थता नातिशेते' इत्याद्यपहस्तितमः प्रागमोक्तविधिना वस्त्रादिग्रहणस्य हिंसाद्यपायरक्षणनिमित्ततया मुक्तिमार्गसम्यग्ज्ञानाधुपबृहकत्वात तत्परित्यागस्य स्वाक्कालीयत्वापेक्षया तद्बाधकन्यात् । .---.- --- - --.-.
.- ..-. में क्षीण, रुग्ण, दुर्बल आदि पति के लिये पथ्य आवि श्राहार के आनयन का कार्य कैसे होगा? एवं पात्र के प्रभाव में अन्य भोज्य, पेय आदि का प्रवान न हो सकने से दान कर्म का पालन कैसे होगा? तथा अर्याद विशिष्टपुण्यहोन, लरिषशून्य, प्रशक्त और अतिथियों का लधिसम्पन्न, समर्थ, आतिथेयों द्वारा उपकार न हो सकने से उनको परस्पर-समता क्यों न होगो ? यानी शक्त-अशक्त का कोई मेव ही न रहेगा।
[ वस्त्रादि साक्षात्-परम्परया मुक्तिसाधक न होने की शंका का निरसन ]
वस्त्रादिग्रहण के विरोध में दिगम्बरों का यह भी कहना है कि यति का वस्त्रग्रहण अनुचित है क्योंकि वह न मुक्ति का साक्षात् साधक है और न परम्परया साधक है । साक्षाव साधक इसलिये नहीं है कि शास्त्र में सम्यग्दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्याचारित्र इस रत्नत्रय को हो मुक्ति का साक्षात् साधन कहा
कहा गया है। वस्त्रधारण परम्परया मुक्तिका साधक इस लिये नहीं है कि यह रत्नत्रय का सम्पादक नहीं है किन्तु विघटक है क्योंकि वस्त्रग्रहण परिग्रह है और रस्नत्रय अपरिग्रहरूप चारित्र्य से घटित है और परिग्रह-अपरिग्रह का उसी प्रकार सर्वविधित विरोध है, जिस प्रकार अधिकार रूपदर्शन की उत्पत्ति का । इस सम्वर्भ में यह भी कहना उचित नहीं हो सकता कि वस्त्रग्रहण रत्नत्रय के साधनभूत शरीर की स्थिति का साधन होने से मुक्ति का परम्परया साधन है, क्योंकि रत्नत्रय के साधन शरीर को स्थिति वस्त्रग्रहण के बिना भी सम्भव है।
व्याख्याकार का कहना है कि वस्त्रग्रहण के विषय में दिगम्बरों का यह कथन भी संगत नहीं है, क्योंकि वस्त्रग्रहण के विरोध में कहो गई उक्त बात आहार-ग्रहण के विरोध में भो कहो जा सकती
कहा जाय कि-"विहित आहारग्रहण किया यह उत्सरगुणरूप है जो व्याप्य है और उसका व्यापक शुखाहारग्रहणविषयक शुद्धभाष है। यह भाव प्राज्ञायिहित क्रियाविषयक होने से शुद्ध है। अत: आहारग्रहण किया अथवा तवन्तर्गतशुद्धभाव परम्परा से मुक्ति का साधन है ऐसा मानना पडेगा"तो यही बात वस्त्रादिग्रहण के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।