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________________ २२ ] [ शास्त्रवास्ति० ६ श्लो०४ यत्त गृहान्तरानुप्रवेशवद् देहाद् देहान्तरानुप्रवेशस्याभिलाषपूर्वकत्वादनन्यथासिद्धो हेतुर्न द्रव्यविशेषसाधका, तदुक्तम् "दुःखे विपर्यासमतिस्तृष्णा वाऽवन्ध्य कारणम् । ___ जन्मितो गस्य ते न सानो जरा जन्माशियति ॥१॥" इति सौगताकूतम् । तदसत, प्रेत्यहीनशुन्पादिगर्भेऽभिलापाऽसंभवात् । एवं चात्मप्रवेशात् कर्मप्रदेशानां पृथक्करणरूपया निर्जरयैव व्यापारत्वं कर्मणो ज्ञानस्य वा, न तु कर्मणा, परेपामपि 'धर्मेण पापमपनुदति' इत्यायेतदर्थावेदकम् । येऽप्याहुरुदयनमतानुसारिणः- 'कर्मणा यावदनुकूलोपसंहारवण तत्वज्ञानमुपसंहृत्यैव मोक्षो जननीयः' इत्यावश्यकत्वात् तत्त्वज्ञानमेव कर्मणां द्वारम् । अनुमानमपि-'तीर्थविशेषस्नानादीनि तत्त्वज्ञानद्वारकाणि, मोक्षजनककमत्वात् , यमादिवत्' । न चात्र योगत्वमुपाधिः, "कथयति भगवानिहान्तकाले भवभयकातरस्तारकं प्रयोधम्" इत्यादिपुराणात , "रुद्रस्तारक व्याचष्टे" इत्यादिश्रुतेच तत्त्वज्ञानद्वारा मुक्तिजनके वाराणसीप्रायणादौ साध्याऽध्यापकत्वात् । तेषां च कर्मणां सत्त्वशुद्धिद्वारा तत्त्वज्ञानहेतुत्वम् । कार्यविशेषाच न व्यभिचारः । श्रुतिरपि तत्त्वज्ञानकर्मणोः कारणतामात्रं चोधर्यात, न तु तुल्यकक्षतया समुञ्चयम् , इति तेऽपि भ्रान्ताः, हिंसामिश्रितानां स्नानादीनामीश्वरार्पणयुद्धयादिना सत्वशुद्धिद्वारा तत्त्वज्ञानाऽहेतुत्वात ; अन्यथा ब्रह्महत्या-रयेनयागादीनामपि तद्बुद्धया क्रियमाणानां तथावप्रसङ्गात् , वाराणसीप्रायणादेरपि [द्रव्यात्मक अदृष्टसिद्धि में बाधक शंका का निरसन ] इस अनुमान के सम्बन्ध में बौद्धों का यह कहना है कि-"जसे एक से अन्य गृह में प्रवेश अनन्यनेय प्रवेश होते हुये भो अत्त्य गृह में प्रवेशाभिलाष से होता है न कि प्रवेशकर्ता से सम्बद्ध किसो नव्यान्तर रूप निमित्त से होता है उसी प्रकार एक वेह से देहान्तर में प्रवेश कर्ता के अभिलाष से हो उपपन्न हो सकता है, अतः अनन्यनेय प्रवेशरूप हेतु उक्त साध्य के बिना भी सिद्ध हो जाने के कारण व्य विशेष का साधक नहीं हो सकता।" इस कथन के समर्थन में व्यख्याकार ने एक बौद्ध-कारिका उद्धत की है, जिसका अर्थ यह है कि-'भ्रमात्मिका बुद्धि किया तृष्णा,-अनुदिन वर्धमान दिषग्राभिलाष-दुःख का अमोघ कारण है । यह दोनों जिस जन्मवात् प्राणी को नहीं होते वह पुर्नजन्म नहीं प्राप्त करता।'किन्तु व्याख्याकार की दृष्टि में यह बौद्धकथन प्रसंगत है क्योंकि होन योनि कुतिया आदि के गर्भ में प्राणी के प्रवेश को अभिलाषजन्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसे गर्भ में प्रवेश की अभिलाषा किसी प्राणी को नहीं हो सकती, प्रतः इस प्रवेश को प्रवेशकर्ता से सम्बद्ध अद्दष्टात्मक द्रव्यविशेष से जन्य मानना आवश्यक होने से उक्त हेतु द्रव्यविशेष का साधक होने में कोई बाधा नहीं है। मोक्षोपाय के सम्बन्ध में प्रस्तुत विचार का निष्कर्ष यह है कि कर्म किंवा ज्ञान से निर्जरा होती है। निर्जरा का अर्थ है आत्मप्रदेश से फर्मप्रदेश का पृथक्करण । इस निर्जा के द्वारा ही कर्म
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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