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स्या. क. टीका-हिन्दी बिधेसन ]
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[ आ. निं. ११६६ ] इत्यागमात् क्रियायास्त्वनन्तरत्वाद मुख्य हेतुत्वमिति क्रियानयो विशिष्यते, ज्ञाननयस्तुहीयते तदिवमुक्तं भाग्यक्रतापि " नाणं परं परमंणतरा उ किरिया तय पहाण यरं, जुतं कारणं [११३७] इति कथमुभयनयानुग्राहकमुभयवादिमतमिति । मैचम्, प्रवृत्तिकाले तज्जनकज्ञानस्यापि सत्त्वेनानन्तरत्वाविरोधात् । न तरविशेषगुणेन पूर्वविशेषगुणनाश इत्यभ्युपगमो नः । न चैब क्रियाया द्वारत्वविरोधः, द्वारिणोऽनाशेऽपि स्वफलयोर्नियतमध्यभावेन तदविरोधात् द्वारत्वे द्वारिनाशविशिष्टत्वाऽप्रवेशात् तदिदमुक्त माप्यकृतैव 'अहवा समय तो दोन्नि जुताई " । प्रथमपक्षाभिधाने तु ज्ञाननयाभिमतस्वविषय मुख्यत्वाभिनिवेशत्यागाय हरवत्व-दीर्घत्वयोरिव गौणत्व - मुख्यत्वयोरापेक्षिकत्वात् । एतेन
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'जम्ह | देसण - नाणा संपुनफलं ण दिति पत्तेयं । चारितजुआ दिति हु विसिस्सए तेण चारितं ॥ १ ॥ इतीयमागमोतियख्याता, आत्मगृहशुद्धये प्रदीपदीपन - संमार्जनीमा जनवातायनजालक
वह जिस प्रकार परम्परया हेतु होने से गौण होता है उसी प्रकार ज्ञान और दर्शन किया द्वारा परम्परया कारण होने से गौणहेतु है । क्रिया फल का अव्यवहित कारण होती है, अत: वह मुख्य हेतु | इसलिए स्पष्ट है कि क्रियावाद श्रेष्ठ है और शानवाद उसकी अपेक्षा हीन हैं । भाष्यकार ने भी यह बात कही है, जैसे- ज्ञान पारम्परिक कारण है और क्रिया अध्यवहित कारण है अत एव उसी की मुख्यकारणता युक्तिसङ्गत है ।" इसलिए उभयवादी क्रिया और ज्ञान उभयनय दोनों का पोषक कैसे हो सकता है। किन्तु यह शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि प्रवृत्तिकाल में ज्ञान के भी उपस्थित रहने से उसमें फल की अव्यवहित पूर्वता में कोई विरोध नहीं हैं । यतः नैयायिक की तरह उत्तर विशेष गुण से पूर्वगुण का नाश होना जैनों को मान्य नहीं है । अत एव फल के अध्यवष्टित पूर्वेक्षण में ज्ञान का अस्तित्व असम्भव नहीं हो सकता ।
फल के अव्यवहित पूर्व में ज्ञान की अवस्थिति होने से क्रिया में ज्ञान की द्वाररूपता बाधित नहीं हो सकती क्योंकि व्यापारी का नाश न होने पर भी व्यापारी ज्ञान और उसके मुख्य फल के मध्य में क्रिया के नियमित विद्यमानता के नाते उस में ज्ञान का व्यापारत्व उपपन्न हो सकता है। क्योंकि व्यापार का मात्र इतना ही लक्षण है कि जो जिस से जन्य हो और उसके जन्य का अनक हो वह उसका व्यापार है । इस में तनाशकालीनत्वरूप विशेषण का प्रवेश नहीं है । अत: इस विशेषण से शून्य उक्त लक्षण प्रवृत्तिकाल में ज्ञान के होने पर भी प्रवृत्ति - क्रिया में सुसंगत है। यह बात भाष्यकार ने भी कही है, जैसे- " अथवा ज्ञान और क्रिया दोनों एककालत्ति कारण हैं ।" भाग्यकार ने पहले जो ज्ञान को परम्परा से और किया को साक्षात्कारण कहकर क्रिया की मुख्य कारणता और ज्ञान की गौण कारणता कही है, वह 'ज्ञान ही मुख्य कारण है' ज्ञान - नयवादी के इस आमद के निराकरण के उद्देश्य से कही है । वास्तव में ज्ञान और क्रिया की गौण मुख्यता ह्रस्वत्व और दीर्घत्व के समान सापेक्ष है ।
उक्त प्रतिपादन से आगम के इस वचन की व्याख्या हो जाती है कि 'ज्ञान और दर्शन प्रत्येक से सम्पूर्ण फल की प्राप्ति नहीं होती, किन्तु चारित्र के सहकार से प्राप्त होती है, इसलिए चारित्र उन दोनों की अपेक्षा विशिष्ट है । वस्तुस्थिति यह है कि गृह की शुद्धता के