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________________ ३०२ [ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ११ / ४४ पिधान स्थानीयज्ञान - तपः संयमानामेकदेव व्यापारात् फलोपयोगितया द्वयोरपि मुख्यत्वाऽविशेषात् यदागमः - [ वि आ. भा. ११६९ ] 'नाणं पयासयं सोहगो तो संजमो अ गुत्तिकरो । तिरहे पि समाओगे मुकखो जिणसासणे भणिओ || १ ||" इति । यदि चैचमपि कालतो देशतश्च स्वेतरसकलकारणसमवधानव्याप्यसमबधानकत्व लक्षण उत्कर्षश्चास्त्रिक्रियायामेव न खलु षष्ठगुणस्थानमावि परिणामरूपं चारित्रं चतुर्थगुणस्थानमात्रिपरिणामरूपं ज्ञानमतिपत्य वर्तते, न वा चतुर्दशगुणस्थानचरम समयभा विपरमचारित्रं त्रयोदशगुणस्थानमावि - केवलज्ञानमतिपत्येति; घटकारणेषु दण्डादिष्वपि चरमकपालसंयोगोऽपि हीत्थमेव विशिष्यते । लिए प्रदीप को दीप्त रखने, झाड़ से धूल आदि निकालने, और बाहर से गन्दी वस्तुओं के प्रवेश को रोकने के लिए झरोखे की जाली बन्द करने की जो उपयोगीता होती है वही उपयोगीता आत्मशुद्धि के लिए ज्ञान, तप और संयम की भी है। जैसा कि भागम में कहा गया है--' शान प्रकाशक होता है, तप शोधक होता है और संयम गुप्तिकारक होता है । तीनों के सनिधान में ही मोक्षलाभ होने की बात जिनशासन में कही गयी है । ' [विशिष्ट समवधान से क्रिया में उत्कर्ष की आशंका ] यदि यह माना जाय कि उक्त रूप से शान और क्रिया के मोक्ष के प्रति एककालवृत्ति कारण होने पर भी ज्ञान की अपेक्षा क्रिया का यह वैशिष्ट्य है कि देशकाल दोनों दृष्टि से क्रिया का समवधान, उससे भिन्न मोक्ष के सफल कारणों के समवधान का व्याप्य है । यह वैशिष्ट्य ज्ञान आदि में नहीं है । यह निश्चित है कि गुण स्थान में होने वाले विशुद्ध परिणाम रूप चारित्र चतुर्थगुण स्थान में होने वाले परिणाम रूप ज्ञान के बिना नहीं होता, एवं चतुर्देश गुण स्थान के अन्तिम समय में होने वाले परमोच्च चारित्र त्रयोदशगुण स्थान में होने वाले केवलज्ञान के बिना नहीं होता घट के दण्ड आदि कारणों में भी चरम कारणीभूत कपालसंयोग में भी उक्त प्रकार का ही वैशिष्ट्य होता है। क्योंकि उसके समवधान काल में घट के दण्ड आदि अन्य सभी कारणों का समधान सम्पन्न हो चुका रहता है | ! इसके विपरीत यह नहीं कहा जा सकता कि स्वप्रयोज्य विजातीय संयोग सम्बन्ध से दण्ड आदि का समयधान भी घट के अन्य सभी कारणों के समवधान का व्याप्य ही होता है । उसी प्रकार स्वप्रयोज्य अतिशयित चारित्र सम्बन्ध से ज्ञान आदि का भी समग्रधान मोक्ष के अन्य कारणों के समवधान का व्याप्य ही होता है। अतः उक्त रीति का वैशिष्ट्य घट कारणों में केवल कपाल संयोग में ही नहीं है एवं मोक्ष के कारणों में केवल क्रिया में ही नहीं है यह इस लिये नहीं कहा जा सकता कि क्रिया और कपाल संयोग में जो उक्त प्रकार का वैशिष्ट्य बताया गया है उसका अभिप्राय यह है कि क्रिया के स्वतः- ( साक्षात् सम्बन्धमूलक ) समयधान में मोक्ष के अन्य सॠष्ट कारणों के समवधान की व्याप्ति है एवं कपाल संयोग के स्वतः( साक्षात सम्बन्धमूलक ) समवधान में घट के अन्य सभी कारणों के समवधान की व्याप्ति है । ऐसी स्वतः व्याप्ति मोक्ष के ज्ञान आदि कारणों में एवं घट के दण्ड आदि कारणों में नहीं है ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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