________________
८]
शाखयाता प्रस्तावना ११ वे स्तबक में :-- शब्दार्थसम्बन्धस्थापन-अपोहबादनिरसन-एकान्तज्ञानवादनिरमन-एकान्तक्रियावादनिरसनमुक्तिस्वरूपवर्णन-स्त्रीमुक्तिसिद्धि... इत्यादि,
__इस प्रकार, शास्त्रवार्ता और उसकी स्याद्वादकल्पलता व्याख्या में दार्शनिक जगत के अनेकानेक सिद्धान्तों की छानबीन की गर्या है । इतने बहुसंख्य गहन विषयों की चर्चा अन्य किसी एक ही ग्रन्थ में मिलना दुर्लभ है, अत पत्र जिज्ञासुओं के लिये यह ग्रन्थ अवश्य पठनीय-मननीय है।
ऋणनिर्देश :-शास्त्रवा० का सम्पादन कार्य पूर्ण हुआ है बह बड़े आनन्द की बात है। इस का श्रेय श्री तीर्थकर-गणधर भगवंतों एवं गुरुदेवों की कृपादृष्टि को है । जिन्होंने मेरे आध्यात्मिक उत्थान में भरसक रस लेकर मुझे विरतिमार्ग में आगे बढाया वे स्व. परमगुरुदेवसुविशालगच्छाधिपति सिद्धान्तमहोदधि-कर्मसाहित्यप्रदीप-निशताधिकमुनिगणनेता श्रीसंघहितप्राधान्यदाता कृपालु-पूज्यपाद आचार्यवर्य श्रीमद् विजयभनरीश्वर महाराजा के करुणामृत की धारा से ही इम ग्रन्थ का सम्पादन नवपल्लवित हुआ है ।
आप के अनन्य कृपापात्र पट्टालंकार, हजारों युवकों का शिविर के माध्यम से पुनरुत्थान करने वाले, शास्त्र के नाम से किये जाने वाले फिजुल जुल्मों का प्रतिकार करने वाले प्रकार साहसिक, न्यायविशारद, १०८ आबंधीलवर्धमानतपसमाराधक, श्री संहितदर्शी, ननामी पत्रिका के माध्यम से गालीकदम उछालने वाले नामदा के प्रति असीम करणावर्षी, पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुमरीश्वरजी महाराजा के निरंतर बरसते रहे कृपामेघ ही इस ग्रन्थ के सम्पादन में प्राणपूरक रहा है ।
आप के पट्टालंकार सिद्धान्तदिवाकर-सुदृढसंयनालंकार-आद्यप्रवचनप्रभावक-पूज्यपाद गुरुदेव श्री विजय जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा की अमूल्य सहाय के बिना एसे कार्य की सम्भावना ही नहीं हो सकती ।
विशेषतः दूर-निकटवर्ती अनेकानेक शुभेच्छक मुनियंद की सहानुभूति एवं पू. मुनिराजश्री नदीवोष विजय, पू, तपस्विरत्न मुनिश्री जयसोम विजय तथा मुनिश्री मनोरत्न विजय आदि सेवाभावि मुनियों का दृढ़ सहकार न मिलता तो इस अन्य के प्रस्तावनादि के लेखनकार्य के लिये मैं कभी समर्थ न हो सकता । '
कोल्हापुर के शाहूपुरी जैन श्वेताम्बर संघ के अग्रणीयों द्वारा की गर्या महती सेवा को भी मैं कैसे भूल सकुँगा ?
शासनदेव को यही प्रार्थना है कि ऐसे उत्सम ग्रन्थरन्न के स्वाध्याय द्वारा अधिकृत मुमुक्षु वर्ग कदाग्रह विष का उद्भिरण कर के आत्महित को सिद्ध करें ।
बि. सं.।
२०४४
जयसुंदरविजय