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[ शासवार्ता स्त० १०.५२ सजातीयकार्यकर्तत्वसंभावना वा! नाद्यः, कर्तविशेषधिप्रतिपत्त्या तद्विशेषस्मरणस्याऽसत्यत्वेऽपि कर्तमात्रस्मरणस्याऽसत्यत्वाऽयोगात्; अन्यथा कादम्बर्यादावपि कर्तविशेषविप्रतिपत्त्याऽस्मर्यमाणफर्तुत्वेनानैकान्तिकत्वासनात् । अत एव न द्वितीयोऽपि, कर्तृविशेषे प्रकृतजातीयकार्यान्तरकर्तृत्वसंभावनायामपि प्रकृते कर्तृमात्रस्मरणाऽवाधात् ; अन्यथा च वक्ष्यमाणस्थले व्यभिचारात-इत्याशयवानाह
नाऽभ्यास' ऐवमादीनामपि कर्तापविमानतः ।
स्मयते च विगानेन हन्तेहाप्यष्टकादिकः ॥४२॥ 'अभ्यास.' एवमादीनामपि"अभ्यासः कर्मणां सत्यमुत्पादयति कौशलम् । धात्रापि ताबदभ्यस्त यावरसृष्टा मृगेक्षणा ॥१॥"
में साध्य का व्यभिचारी नहीं है' -तो जसे भारत आदि में असमर्यमाणकर्तकत्व का अभाव है उसीप्रकार वेव में भी उस का अभाव है, क्योंकि वेदपौरुषेयत्व वादियों को वेद के कर्ता का स्मरण होता है । अतः अस्मयमका काय हेतु हमें असिद्ध है।
[ विगान के सम्भावित पक्षद्वय में हेतु की अनुपपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-' बंद और भारत आदि के कर्तृ-स्मरण में तुल्यता नहीं है क्योंकि भारत आदि के कर्ता के स्मरण के बारे में किसी का बिगान-मन्य नहीं है। किन्तु, वेद कर्ता के स्मरण के बारे में वाऽपौरुपयत्ववादियों की चिमति है 1 अत: भारत में अमर्यमाणकर्तकत्व के न होने और वेद में उस के होने से उक्त दोष नहीं हो सकता' -तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि विगान-विप्रतिपसि के किसी भी सम्भावित पक्ष में हेतु की उक्त व्याख्या निष नहीं हो सकती । जैसे कर्ता के विषय में बिगान की दो व्याख्या हो सकती है (१) पक यह कि कर्तृ-विगान का अर्थ है क विशेष के विषय में विप्रतिपत्ति और (२) दुसरी यह कि स्मर्यमाणकर्ता में प्रकृत काग्रं के सजातीय अन्य कार्य के कर्तृत्व की सम्भावना ।
इस में प्रथम व्याख्या स्वीकार नहीं हो सकती क्योंकि जिस विशेष कर्ता में विप्रतिपति होगी उस कर्ता के स्मरण के असत्य होने पर भी कर्तामात्र का स्मरण असत्य नहीं हो सकता । अन्यथा कादम्बरी आदि काव्यग्रन्थों के विशेष कर्ता के सम्बन्ध में भी विप्रतिपत्ति होने से उन ग्रन्थों के भी कर्ता का स्मरण असत्य हो जायगा । फलतः अस्मयमाण कर्तृकत्व उन में साध्य का व्यभिचारी हो जाएगा।
ऋत-विगान की दूसरी व्याख्या भी ग्राह्य नहीं हो सकती क्योंकि विशेष कर्ता में बंदरचना रूप प्रकृत कार्य के सजातीय अन्य कार्य के कर्तृत्व की सम्भावना होने पर भी सामान्यरूप से बेदकर्ता के स्मरण का बाध नहीं हो सकता। और यदि विशंपकर्ता में प्रकृत कार्य के सजातीय अन्य कार्य के कर्तृत्व की सम्भावना में प्रकृत कार्य के कर्ता मात्र के स्मरण का बाध होगा, तो 'स्मर्यमाणकर्तृकत्व का अभाव' रूप हेतु आगे कहे जाने वाले स्थल में साध्य कर व्यभिचारी हो जाएगा । प्रस्तुत ४२ वीं कारिका में यही आशय ध्यक्त किया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है
[अभ्यास....आदि वाक्यवत् वेद में भी कर्तस्मरण में वमत्य ] वेदापौरुषेयत्व-बादियों का कहना है कि-' कर्ता के स्मरणाभाव से वेद में अपौरुषेयत्व