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________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विषेचन ] [१७७ अन्ये तु पश्चार्धमन्यथा पठन्ति-"मिथ्या तत्तादृशी येन ने धात्रा निर्मिता परा" इत्यादीनामपि, कर्ताऽविमानतः एकवाक्यतया न मयते; स्मर्यते च बिगानेन--अनेकवाक्यतया, हन्त ! इहापि= वेदेऽपि अष्टकादिकः अष्टका यामकब्रह्मादिरिति । अथ "अभ्यासः"....एवमादौ कर्तृमात्रे न रिगानमस्ति, वेदे तु कर्तमात्रेऽपि तदस्ति । तथाहि-वेद सौगता: कर्तमात्र स्मरन्ति न मीमांसकाः, इति तत्र कर्तस्मरणमसत्यमिति चेत् ? नन्वेवमस्मर्यमाणकर्तकत्वहेतुरेवासिद्धः । अथ च्छिन्नमूलं वेदे कर्तृस्मरणम् , अनुभधो हि स्मरणस्य मूलम् , न चासौ तत्र तद्विषयत्येन विद्यत इति न दोष इति चेत् ? न, स्वप्रत्यक्षेण कननुभवस्यागमान्तरेऽप्यभावात्, सर्वप्रत्यक्षामावस्य चाचांगदशा निश्चतुमका अनुमान हो सकता है, क्योंकि पौरुषेय वाक्यों में कर्तृस्मरण का अभाव न होने से व्यभिचार नहीं है। जैसे अभ्यासः कर्मणां सत्यमुत्पादयति कौशलम् । धात्रापि तावदभ्यस्नं यावत्सृष्टा मृगक्षणा ।। कुछ अन्यों के अनुसार इस श्लोक के उत्तगध का पाट इस प्रकार है मिथ्या तत्तादृशी येन न धात्रा निर्मिताऽपरा" अर्थ : यह सत्य है कि 'कर्म का अभ्यास कौशल उत्पन्न करता है। प्रमाने भी अभ्यास से कौशल प्राप्त कर के ही मृगनयना की रचना की ।' अन्य उत्तरार्ध के मत के अनुसार उक्त कथन सत्य नहीं किन्तु मिथ्या है क्योंकि ब्रह्मा ने उस के जैसी किसी अन्य सुन्दरी की रचना नहीं की। -न पौरुषेय वाक्यों के कर्तृस्मरणा में एकवाक्यता ऐकमत्य नहीं है, किन्तु पकबाक्यता का अभाव यानी वैमत्य है। अतः इन में कर्तस्मरणामात्ररूप हेतु नहीं है, अन एव उस में व्यभिचार नहीं है"-किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि कर्तृस्मरण में वैमत्य होने से यदि कर्तस्मरणाभाव को अस्वीकार कर व्यभिचार का वारण किया जायगा तो बेद में भी कर्तस्मरणाभाव का अस्वीकार होगा, क्योंकि वेद में भी अष्टकादि कर्ता के स्मरण में वैमत्य है। फलतः वेद में कर्तृस्मरणाभावरूप हेतु स्वरूपासिल हो जापगा। यदि यह कहा जाय कि । उक्त पौरुषेय वाक्य के सामान्यकर्ता के विषय में विगान वैमत्य नहीं है किन्तु विशेष कर्ता के ही विषय में बमत्य है, पर वेद के तो सामान्यकर्ता के विषय में भी वैमत्य है। जैसे-बौद्ध तो वेद का कोई न कोई कर्ता अवश्य मानते हैं किन्तु मीमांसक वेत् का कोई भी कर्ता नहीं मानते । अतः उक्त पौरुषेय वाक्य के सामान्य कर्ता में मत्य न होने से कर्तृस्मरण का अभाव नहीं माना जा सकता, पर वेद के सामान्य कर्ता में भी मत्य होने से वेद में कर्तस्मरण का अभाष माना जा सकता है। इसलिए कर्तस्मरणाभाव हेतु पौरुषेय वाक्यों में न तो व्यभिचारी है और न वेद में मसिद्ध है । फलतः उस से वेद में अपौरुषेयत्व की सिद्धि हो सकती है" -तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यौद्धादिको वेद में कर्तृस्मरण होने का आपने ही कह दिया, इसलिये वेद में अस्मर्यमाणकर्तृकत्यरूप हेतु ही असिद्ध हो गया। [किसी एक को प्रत्यक्ष न होने मात्र से उस का अभाव असिद्ध] यदि यह कहा जाय कि-'बौद्धादि को बेद में जो कर्तृस्मरण है उस का कोई मूल नहीं है, स्मरण का मूल अनुभव है, वेद के कर्ता का किसी भी बौद्वादि को अनुभव नहीं है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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