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स्था, क. टीका-हिन्दीविवेचन
तस्मात् श्रुतिपदात्, न चाविशेषेण पदीपादित इव झपादो, प्रतीतिरुपजायते । संकेतसव्यपेक्षत्वे इष्टवाच्यविषयसंकेतमपेक्ष्येप्टार्थप्रतीतिजमकस्वभावस्थे, 'म्बत एव' इत्ययुक्तिमत् प्रदीपादितुल्यावतःप्रकाशकत्वभङ्गात ।।२९।।
नियतसक्रेतापेक्षायामपि दोपमाह-- साधुनवेति संकेनो न चाशला निवर्तते । तद्वंचियोपलन्धश्च स्वामयाभिनिवेशतः ॥३०॥
इतेव्यवहितसंबन्धाद् न च-नेय, संकेतः श्रुतिस्थाम्या दिपदानामन्यादिविषयोऽभिप्रायः, साधः =प्रकृतयथार्थवाच्या र्थवीजनकः न वा इति एवमाकारा आशङ्का निवर्तते । कुतः ? इत्याह . स्वाशयामिनिवेशत: स्वाशयेन स्वाभिप्रायेणाभिमुखो निवेशः तथा तथा व्यापारचन ततः, तद्वैचित्र्योपलब्धेश्च संकेतवैचित्र्यदर्शनाच्च ॥३०॥
ननु व्याख्याप्यपारुषेयी स्मृता केवलं जैमिन्यादिभिः, इति चेनवत् तव्याम्या यामपि ना साधुत्वाशङ्केत्याशङ्कयाह-- व्याख्याप्यपौरुषेययस्य माना पाकर संगतः । मिथो विमायाश्च तसाधुवाधनिश्रितः ॥३१॥
व्याख्याप्यस्य वेदस्य अपौरुषेयी, मानाभावात् अमिन्यादीनां स्मरणादौ प्रमाणाभावात् न सगता । करणेऽपि स्मरणोवतेरन्यार्थतयोपपत्तेबांधकाभावात् । अनन्यगतिकतवान मानमित्यत संकेत कर देने पर उन पदों से जल आदि के बोध का होना भी देखा जाता है, न कि प्रदीप आदि से जैसे रूप आदि का ही प्रत्यक्ष होता है उस प्रकार वेदस्थ पदों से दिन अर्थ का बोध होना दृष्ट है। और इस दोष के निवारणार्थ यह कल्पना की जाय शि. वेदस्थ पदों का निश्चित अर्थों में नियतसंकेत होता है। उस की अपेक्षा से ही घेद स्याओं का बोधक होता है, -तो उसे स्वतः प्रमाण फाहना असंगत होगा। अत. येद में प्रदीप के समान स्वतः प्रकाशकता की सिद्धि न होकर उस का भङ्ग ही सिद्ध होता है ।।२०।।
३०वीं कारिका में घेद को स्वार्थबोधन में मियतसवंत सापेक्ष मानने पर भी दोष बनाया गया है | कारिका का अर्थ इस प्रकार है-' साधुवति' में श्रयमाण 'इति' पद का आशङ्का निवर्तते' इस के साथ स्वहित सम्बन्ध मानने से उपलब्ध होता है।
वंद को नियतसत सापेल मानने पर भी 'वेदस्थ अग्नि आदि पद का अग्नि आदि अर्थों में जो संकेत है यह प्रकृत में यथार्थ वाच्यार्य का बोधक है या नहीं है' इस शा की निवृत्ति नहीं होती क्योंकि विद्वानों द्वारा अपने अपने अभिप्राय के अनुसार वेद की व्याख्या की जाती है और उम व्याख्या मे नियतसंकेत का ज्ञान न होकर संकेतन्निःय का ही नाम होता है ॥३९॥
[ वेदव्याख्या में अपौरुषेयता का असंभव ] ३१श्री कारिका में बंद की व्याख्या अपौरुपयी है' इस मत का निन्सन किया गया है। कारिका का अर्थ इन प्रकार है___ यदि यह कहा जाय कि-'चंद के समान वेद की व्याख्या भी पौरपंय नहीं किन्तु अनादि नित्य है, जैमिनि आदि ने उस व्याख्या का केवल स्मरण किया है। अत: बंद के
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