________________
१३०
[शास्त्रधार्ताः स्त: १०/३२-३३
आह-मिथः कापिलेयादिव्याख्यया सह, विरुद्धभावाच्च व्याहतार्थत्वाच्च जैमिनीयादिव्याख्यायाः । व्याख्याभेदेऽपि अस्यां साधुत्वं सेवाद्रियत इत्यत आह-तत्साधुत्वाद्यनिश्चितेः= इयं साधुः, इयं च कश्पिता' इति निश्चयाभावात् ॥३१॥ मान्यप्रमाणसंवादात्तत्साधुत्य विनिश्चयः । सोऽतीन्द्रिये न यन्याय्यस्तत्तद्भावविरोधतः ॥३२॥
एतदेव भावयति-नान्यप्रमाणसंवादात-न प्रत्यक्षादिप्रमाणसंघादेन 'तद्गोचरगतेन' इति गम्यते, तत्साधुत्वविनिश्चया-अधिकृतव्याख्यायाः साधुत्वनिश्चयः, गृहीतमामाण्यकप्रमाणान्तरसंवादित्वेनाऽप्रामाण्यशङ्कानिवृत्तेरिति भावः । कुतः ! इत्याह-सः अन्यप्रमाणसंवादः, यत् यस्मात् , अतीन्द्रिये व्याख्यागोचरे न न्याय्यान्न युक्त्युपपन्नः । कुतः ? इत्याह-तत्तद्भावविरोधतः= तस्यातीन्द्रियस्य व्याख्याविषयस्य तद्भावविरोधतः, अन्यप्रमाणग्रहेऽतीन्द्रियस्वविरोधादित्यर्थः ॥३२॥ तस्मायाख्यानमस्येदं स्वाभिप्रायनिवेदनम् । जैमिन्यादेन तुल्यं किं चनेनापरेण व ? ॥३३॥
यतश्चैवं तस्मात् कारणाद्, व्याख्यानमस्य वेदस्य, इंदं भवत्कल्पितम्, स्वाभिप्रायनिवेदनं गतः स्वाशनाम:२म् , जैमिल्यादे: ३१८, नफर्तुः, न तु नित्यार्थस्मरणम् , समान वेद की व्याख्या में भी साधुत्व की शक नहीं होती '-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वेदव्याख्या के अौरुषेय होने में और जमिनि आदि द्वारा मात्र उस का स्मरण होने में कोई प्रमाण नहीं है; क्योंकि वेदव्याख्या की रचना को ही अन्य दृष्टि से स्मरण कहने की उपपशि में कोई बाधा नहीं है। यदि यह कहा जाय कि- अपौरुषेय मान घिना वेदव्याख्या की प्रामाणिकता प्रकारान्तर से नहीं टपपन्न हो सकती, अतः यह अनन्यगतिकता-अन्यथानुपपत्ति ही घेदव्याख्या के अपौरपेयत्व में प्रमाण है'-तो यह उचित नहीं है क्योंकि जैमिनि आदि द्वारा की गई वेदों की व्याख्या कपिल आदि द्वारा की गई व्याख्या से विरुद्ध है। अतः विभिन्न आचार्यों दाग की गई वेदव्याख्याओं में यह व्याख्या समीचीन है और यह ध्याख्या कहिपत है. इस निश्रय का कोई आधार न होने से किसी व्याख्या को असाधु मान कर उस का त्याग और किसी व्याख्या को साधु मानकर उसका आदर करना सम्भव नहीं हो सकता ॥३॥
३९ ची कारिका में उक्त अर्थ की ही पुष्टि की गई है । कारिफा का अर्थ इस प्रकार है
वेद की अभीय व्याख्या में अप्रामाण्य शङ्का की निवृत्ति नहीं हो सकती क्योंकि जिस प्रमाण में प्रामाण्य निर्णीत होता है उस अन्य प्रमाण के संवाद से ही प्रस्तुत व्याख्या में अप्रामाण्य शक्षा की निवृत्ति होती है किन्तु प्रकृत में इस प्रकार का कोई प्रत्यक्ष आदि प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि अन्य प्रमाण का संन्याद घेद की व्याख्या से गम्य अतीन्द्रिय अर्थों में सम्भय नहीं हो सकता, यतः वेदव्याख्या से बोधित अतीन्द्रिय अर्थ यदि प्रत्यक्षादि प्रमाण में गम्य होगा तो उस के अतीन्त्रियत्वरूप भात्र का विरोध होगा । ३२।।
उक्त कारण से मीमांसक को अभिमत घेद का व्याख्यान, व्याख्याता द्वारा जब अपने ही अभिप्राय का प्रकाशन है न कि जेमिनि आदि वेदव्याख्याकारों द्वारा वेद के नित्य अर्थ का स्मरण है क्योंकि वेद का अर्थ सूत्रबद व्यवस्थित नहीं है, तो फिर वेदवादी मीमांसक का बचन शैवषचन के तुल्य क्यों नहीं होगा ! कहने का आशय यह है कि जैसे बौद्ध सम्प्रदाय का बचन उस सम्प्रदाय के प्रवर्तक रागादिमान पुरुष का भपने आशय का प्रकाशक होने से