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[ शाखवार्ता० स्त० १०/८२-२१ किञ्च, एवं भ्रमजनकत्वमपि क्वचिद् वेदस्य स्यादित्याहविपरीतप्रकाशश्च ध्रुवमापद्यते कचित् । तथाहीन्दीवरे दीपः प्रकाशयति रक्तताम् ॥२८॥
विपरीतप्रकाशश्च अतथाभूतार्थवाचकत्वं च धूचं निश्चितम् आपद्यते, क्वचित विषयान्तरे । प्रदीपादिदृष्टान्तेनैतदेव भावयति-तथा हीन्दीवरे-नीलोत्पले दीपः प्रकाशयति प्रदर्शयति, रक्तता-पाटलिमानम् । एवं च चन्द्रः पीतवाससि शुक्लताम, इत्यादि द्रष्टव्यम् ॥२८॥ तस्मान्न चाऽविशेषेण प्रतीतिरुपजायते । संकेतसव्यपेक्षत्वे स्वत एवेत्ययुक्तिमत् ॥२९॥
ननु यथा दीपस्य चाक्षुषजननशक्तिरेव कार्यदर्शनात् कल्प्यते न घाणीयादिजननशक्तिः, तथा वेदानामपि स्वार्थे प्रमाजननशक्तिरेच करयते न अमजनशते सिंत लाएपनिमा र ? न, ततः प्रमाकार्यस्यैवाऽदर्शनात् । न च तदतान्यादिपदेश्यो नियतार्थबोधोऽपि दृश्यते, जलादौ संकेतितेभ्यस्तेभ्यो जलादियोधस्यापि दर्शनात् , नियतसंकेतापेक्षायामपि स्यतस्त्वमङ्गो दुर्निवारः इत्यभिप्रेत्याह
इस विषय में प्रत्यक्ष आदि कोई प्रमाण नहीं है और निप्रमाण बात कहने पर तो निप्रमाण अन्य बात भी जो मीमांसक को मान्य नहीं है, कही जा सकती है ॥२७॥
[वेद में प्रदीपादिवत् भ्रमकारकता ] २८वीं कारिका में बेद को निषिपुरुषमूलक न मानने पर उस में प्रमाजनकत्व के समान भ्रमजनकल्य की भी आपत्ति का प्रदर्शन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है...
वेद को प्रदीप आदि के समान अर्थ का बोधक मानने पर प्रदीप आदि के समान ही उसे कहीं श्रम का जनक भी मानना होगा क्योकि यह युक्तिसंगत नहीं है कि अपनी करता के लिये तो बेद में प्रदीप आदि की समता बतायी जाय और समता स्य पर प्रसक होनेवाली प्रतिकूलता से पलायन किया जाय । कहने का आशय यह है कि प्रदीप आदि को तथा बेद को अर्थषोधन में यदि समानभाव माना जायगा तो जैसे प्रदीप से नीलकमल में रक्तता का दर्शन होता है एवं चन्द्रमा की चाँदनी से पीतवस्त्र में धबद्धता का दर्शन होता है उसी प्रकार वेद से कहीं धर्मजनक क्रिया में अधमंजनकत्व और कहीं अधर्मजनक क्रिया में धमजनकता का भी बोध होना चाहिये, किन्तु यह मान्य नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर घेद धर्म-अधम आदि का व्यवस्थापक नहीं हो सकता ॥२८॥
[संकेतापेक्षा होने पर स्वतःप्रामाण्य भंग] २९वीं कारिका में वेद को स्वार्थबोध के जनन में नियत सहूतसापेक्ष मानने पर उस के स्वतः प्रामाण्य के भङ्ग की भापत्ति बताई गई है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है--
यदि यह कहा जाय कि-'जैसे दीप से चाक्षुषप्रत्यक्ष का उदय देखा जाता है अतः उस में चाक्षुषप्रत्यक्ष की उत्पादिका शक्ति ही मानी जाती है, घाणजप्रत्यक्ष आदि के जनन की शक्ति नहीं मानी जाती. उसी प्रकार वद से स्वार्थ की प्रमा का उदय होने के आधार पर यष्ट कहा जा सकता है कि वेद में स्वार्थ की प्रमा उत्पन्न करने की ही शक्ति है, भ्रमजनन की शक्ति नहीं है । अत: वेद से भ्रमात्मकशान की उत्पत्ति का आपादान शक्य नहीं है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वेद से प्रमारूप कार्य का होना रष्ट नहीं है, इसलिये उक्त कल्पना नहीं हो सकती । दूसरी बात यह है कि वेदस्थ अग्नि आदि पदों का किसी पुरुष द्वारा जल में