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________________ २७८ ] [ शास्त्रवा० स्त० ११/२२-२३ अत्रैवानुक्तदोषपरिहारायाहअनन्तधर्मकं वस्तु तद्धर्मः कश्चिदेव च। वाच्यो न सर्व एवेति ततश्चेतन बाधकम् ॥२२।। अनन्तधर्मकं बस्तु, तथातथाऽनेककार्यकरणात्, एकस्वभावादनेककार्याऽसिद्धेः, तद्धर्म: कश्चिदेव च-अभिधेयपरिणामरूपः, वान्यः अभिधेयः, न सर्व एव सर्वथेन्द्रियान्तरमाह्योऽपि, इति; यस्मादेवं ततचैतद्-वक्ष्यमाणं न बाधकम् ।।२२।। किं तत् ? इत्याहअन्यदेवेन्द्रियग्राह्यमन्यच्छब्दस्य गोचरः । शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते ॥२३॥ अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यम्=तात्विकं स्वलक्षणम् , अन्यत् शब्दस्य गोचर:-सांवृतं सामान्यलक्षणम् । कुतः ! इत्याह शब्दात्-घटादिशब्दात् प्रत्येति जानाति घटादिकम् , भिन्नाक्ष: अपरध्याहारादन्धोऽपि, न तु प्रत्यक्षमीक्षते चक्षुष्मानिव । ततः स्पष्टत्वाऽस्पष्टत्वविरुद्धधर्माध्यासाद् मेद एव दृश्यविकल्प्ययोः ॥२३॥ [वस्तुमात्र अनन्त धर्मात्मक है] प्रस्तुत कारिका में अब तक उद्भवित न किए गये दोषों के परिहार का उपक्रम किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है प्रत्येक यस्तु अनन्त धर्मात्मक है क्योंकि उससे भिन्न-भिन्न कार्यों का जन्म होता है और कोई भी वस्तु एक धर्म-एक स्वभाव से विभिन्न कार्यों का जनक नहीं हो सकती। वस्तु के अनन्त धर्मों में कुछ ही धर्म जो अभिधेयपरिणामात्मक होते हैं वही शब्द से वाच्य होते हैं न कि ऐसे धर्म जो सर्वथा इन्द्रियान्तर से ग्राह्य हो वे भी पाच्य होते है 1 क्योंकि सभी धर्म किसी पक शब्द निरूपित अभिधेय परिणामात्मक नहीं होते । शब्दविशेष से अर्थविशेष के अभिधान की इस स्थिति में अन्य दोष जो कि आगे कहा जाने वाला है यह शब्द की मर्वार्थवाचकता और अर्थ की सर्व शव्यबाध्यता में बाधक नहीं हो सकता ||२२|| [ दृश्य और विकल्प्य अर्थी में भेदसाधन की आशंका] २३ थीं कारिका से अब तक अनुदभावित दोष का कथन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है इन्द्रिय से जिस अर्थ का ग्रहण होता है वह अन्य है , और शहद से जिस अर्थ का बोध होता है, वह अन्य है । अर्थात् स्वलक्षण क्षणिक वस्तु चश्च से प्राश होती है और सम्भवतः काल्पनिक ( नाम जाति आदि से विशिष्ट) सामान्य अर्थ शब्द से बोध्य होता है। इसीलिए जिसकी आँम्ब नष्ट हो जाती है या जन्मान्ध होता है उसे वस्तु का दर्शन नहीं होता किन्तु से ग्रस्त का बोध होता है। इसलिए दृश्य (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के विषयभत) अर्थ में स्पष्टता और विकल्प्य (सविकल्पक बुद्धि के विषयभूत) अर्थ में अस्पष्टता होने से दृश्य और विकरूप्य में भेद मानना आवश्यक है । अन्यथा दोनों को एक मानने पर उसमें स्पष्टता और अस्पष्टता इन विरुद्ध धर्मों के समावेश की आपत्ति होगी ||२३||
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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