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________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] [४१ .. ....nintent नहीं होती, अत: पदार्थस्वरूप के लक्षण में उस के दर्शन की अपेक्षा न होने से एक के दर्शन से सर्वदर्शन की सिद्धि नहीं हो सकती-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सर्यसम्वन्धिता को पदार्थ से अत्यन्तभिन्न मानने पर पदार्थ के साथ उस का सम्बन्ध नहीं हो सकता क्योंकि अत्यनामिन पदार्थों में घमा बमः . असे पदार्थ में उसके स्वरूप से बाहि त सर्वसम्बन्धिता का सम्बन्ध होगा उसी प्रकार उस सम्बन्ध का भी सम्बन्ध और उस का भी सम्बन्ध स्वीकार करना होगा, फलतः सम्बन्धकरुपना में अनवस्था की प्रक्ति होगी । इसलिये किसी पदार्थ का परिशान होने पर उस के विशेषणभृत सर्वसम्बन्धिता का भी परिज्ञान होता ही है यह मानना पडेगा । इस प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञान में प्रत्येक पदार्थ में सर्वसम्वन्धिता का ग्राहकत्व सिद्ध है। केवल अन्य मनुष्यों के ज्ञान में सर्वसम्बन्धिताविषयकन्ध की मिद्धि में अनुमान अपेक्षणीय है। यह अनुमान भी केवल अनभ्यासदशा में ही अपेक्षित है, अभ्यासदशा में नहीं, क्योंकि जिस वस्तु का अभ्यास होता है वह वस्तु प्रत्यक्ष से गृहीत हो जाती है क्योंकि प्रत्यक्षयोग्यता वस्तुमात्र में होती है। कर्मों के आवरण के नाते प्रत्येक वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं होता, किन्तु जब किसी वस्तु का अभ्यास होता है-उपाय द्वारा उस वस्तु के कर्मावरण का क्षयोपशम हो जाता है-तब उस वस्तु का प्रत्यक्ष होने लगता है। जैसे धूम में अग्निआदिजन्यत्यरूप अग्नि आदि सम्बन्धित्व, अपने प्रत्यक्ष के विरोधी कर्माधरण का क्षयोपशमरूप अभ्यास हो जाने पर भ्रम में प्रत्यक्षगृहीत होता है, भ्रम में उसके अनुमान की अपेक्षा नहीं होती। [सर्वज्ञसाधक अनुमान ] इस प्रकार कारिका में प्रदर्शित सर्यशानुमान में पक्ष को 'सर्व' पदार्थ से विशेषित कर देने से सर्वशसाधक भनुमान का यह स्वरूप निखरता है कि 'विश्व किसी पुरुष के घटग्राहकसाक्षात्कार का विषय है, क्योंकि घटसम्बन्धिधरूप स्वभाव से युक्त है। जो जिस पदार्थ के सम्बन्धित स्वभाव से युक्त होता है यह उस वस्तु के साक्षात्कार का विषय होता है। जैसे घटसम्बन्धित्यस्षभाय से युक्त भूतल, घट को विपय करनेवाले घटबद्भवलम-भृतल घटसम्यन्धी है' इस साक्षात्कार का विषय होता है। विश्व, घट में विद्यमान व्यावृत्ति भेद का प्रतियोगी है अतः घनिष्ठभेवप्रतियोगित्यरूप घटसम्बन्धित्व विश्व में विद्यमान है, अत: जैसे घटसम्बन्धी भृतल घटसाक्षात्कार का विषय होता है उसी प्रकार घटसम्बन्धी विश्व को भी घटसाक्षात्कार का विषय होना आवश्यक है। इस अनुमान में, विश्व में जो घटसाक्षात्कार की विषयता माध्य हैं वह विष यता स्पष्टतारूप अभिमत है क्योंकि विषयतासामान्य को साध्य मानने पर सिद्धसाधन होगा, वह इस प्रकार कि सामान्य मनुष्य को भी घटसाक्षात्कार में घटसम्बन्धी विश्व का अस्पष्ट भान होता है, क्योंकि जब घट के साथ विश्व का सम्बन्ध है तो घट का भान होने पर तत्सम्बन्धि विश्व का कुछ भान होना स्वाभाविक है। और जिन के मत में घटसाक्षात्कार में विश्व का अस्पष्ट शन नहीं होता उन के मत में सिद्धसाधन न होने पर भी अर्थान्तर का होना अपरिहार्य है क्योंकि घटसाक्षात्कार में विश्व का अस्पष्ट भान मान लेने पर उक्त अनुमान की सफलता हो जाने पर भी उस के द्वारा विश्व के स्पष्टद्रष्टा सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती। अतः उक्त अनुमान में साध्यकुक्षि में स्पष्टतारूपविषयता का ही निवेश आवश्यक है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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