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________________ २६० ] [ शानधाता स्त० ११/८ विवक्षाऽभावात् तत्र तदप्रसक्तौ च विवक्षाया बहुत्वादिप्रतीत्युत्पादकत्वापेक्षया साँवृतबहुत्वाधुत्पादकत्वकल्पनाया एबौचित्यात ; अन्यथा घट-वनादिष्वेकाकारकत्वप्रत्ययानुपपत्तेः । क्रिया कालयोरपि वस्तुत्वे 'सत्ताऽस्ति, विद्यमानकालोऽस्ति' इत्यादो स्वस्मिन् स्वपतीत्यनुपपत्तिः, सांवृतत्वे तु तादृशभेदमादायोपपत्तिरिति द्रष्टव्यम् । __यदपि 'आख्यातेप्वन्यनिवृत्तेरसंप्रत्ययादव्यापिन्यपोहव्यवस्था ' इति; तदपि न, जिज्ञा. सितेऽर्थे शब्दप्रयोगेणा ष्टार्थप्रतिपत्तो सामर्थ्यात्, उत्सर्गतोऽनीष्टव्यवच्छेदप्रतीतेः __ " तथाहि-पचतीत्युक्ते नोदासीनोऽवतिष्ठते । भुङ्क्ते दीव्यति वा नेति गम्यतेऽन्यनिवर्तनम् ।।" [त० सं० ११४५] बहुत्वव्यवहार के लिए बहुषचनान्त 'दार' शब्द का प्रयोग हो सकता है, एवं वन शर के अनेक वृक्ष रूप अर्थ में भी वन के घटक घव आदि. वृक्ष की ववत्व आदि जाति के एकत्व से वृक्ष समूह में विधमान बुद्धिविषविषयत्व रूप लाक्षणिक पकत्व से एकत्व व्यवहार के लिए एक वचनान्त वन आदि शब्द के प्रयोग की उपपत्ति हो सकती हैं। -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि उक्त रीति से एक व्यक्ति में बहुत्य व्यवहार और अनेक व्यक्ति में एकत्व व्यवहार के लिए बहुवचनान्त और पकवचनात शब्द का प्रयोग मानने पर एक वध के लिए बहुवचनान्त वधू शब्द के और अनेक वृक्षों के लिए पकवचनान्त वृक्ष शब्द के प्रयोग की भी आपत्ति अपरिहार्य होगी। यदि यह कहा जाय कि-'शब्द का प्रयोग विवक्षा के अधीन होता है, अतः एक वधू में वधू शब्द से बहुत्व की विवक्षा न होने से बहुवचनान्त वधू शब्द एवं अनेक वृक्ष में वृक्ष शब्द से पकत्य की विवक्षा न होने से एकवचनान्त वृक्ष शब्द के प्रयोग की आपत्ति नहीं हो सकती' -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि यह उत्तर बहुत्य-एकत्व आदि की विधक्षा को बहुत्य पकत्व आदि के बोध का कारण मानने पर ही सम्भव है। अत: विवक्षा को सख्या का बोधक मानने की अपेक्षा सांवृत मख्या द्वारा ही संख्या बोध मानना उचित होने से उक्त उत्तर सङ्गत नहीं हो सकता। इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि कहीं एकत्व की प्रतीति व्यक्तिगत एकत्व(-वास्तव एकत्व) और कहीं जातिगत एकत्व किंवा भाक्त एकत्व से मानी जायगी तो 'एकः घटः' और 'पक धनं' इस प्रकार पकत्व की पकाकार प्रतीति न हो सकेगी। क्योंकि उक्त प्रतीतियों के विषयभूत पकत्व में एक रूपता नहीं है। लिङ्ग संख्या आदि के समान किया और काल को भी काल्पनिक मानना उचित है । यदि उन्हे वास्तविक माना जायगा तो एक बस्तु में आधाराधेय भाव न होने से सत्ता में अस्तित्व का एवं विद्यमान काल में अस्ति शब्द से वर्तमान कालवृत्तित्व का बोध न होगा क्योंकि सत्ता और अस्तित्व एवं विद्यमान काल और वर्तमान काल में परस्पर भेद नहीं है। किया काल को काल्पनिक मानने पर यह दोष नहीं हो सकता क्यों कि उक्त काल्पनिक क्रिया और काल में काल्पनिक क्रिया और काल का भेद मानने से उक्त दोष का परिहार हो सकता है। [ अपोह की अध्यापकता का निरसन ] अपोह के शब्दार्थपक्ष में यह एक दोष दिया जाता है कि-आख्यात तिला प्रत्यय से अन्य
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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