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स्या. क, टीका-हिन्दीविवेचन ]
प्रस्तुत एव दोपान्तरमाहन चाप्यपौरुषेयोऽसौ घटते सूपपत्तितः । वक्तृव्यापारबैकल्ये तच्छब्दानुपलब्धितः ।।३।।
न चाप्यसौवेदः, सूपपत्तितः=सुयुक्त्या अपौरुषेयो घटते । कुतः ! इत्याह-वक्तव्यापारवैकल्य वक्तृतास्वादिव्यापाराभावे तच्छब्दानुपलब्धिता वेदशब्दानुपलब्धः, शदवावनि छन्न एवं ताल्बादिन्यापाराणां हेतुत्वादिति भावः ।।३५।।
ननव.युक्त्या वर्णानां नित्यत्वाद वक्तृ या पारो व्यञ्जकपवनोत्पाद एवोपक्षीण इत्याशङ्कयाहवक्तव्यापारभावेऽपि तद्भावे लौकिक न किम् । अपौरुषेयमिष्टं वो बचो द्रव्यव्यपेक्षया ॥३६॥
वक्तव्यापारभावेऽपिशब्दे तान्याद्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानेऽपि तद्भावे अपौरुषेयत्वेऽन्युपगम्यमाने, लौकिकं वच: किन च:=युप्माकं द्रव्यव्यपेक्षयाऽपौरुषेयमिष्टम् ? तत्रापि हि द्रव्या न्यपौरुषेयाप्येव, द्रव्यतो नित्यत्वस्य पर्यायतश्चोत्पादव्यययोस्तत्रापि प्रामाणिकत्वात् । ईशापौरुषेय धेन लौकिकस्यापि वेदतुल्यत्वं स्यादिति निगर्वः ।
३५ वीं कारिका में प्रस्तुत विषय में ही अन्य दोष का प्रदर्शन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैं
चंद अपौरुषेय है। यह बात उचित युक्तियों से संगत भी नहीं हो सकती, क्योंकि शब्द मात्र के प्रति ताल आदि का व्यापार कारण होता है. अत: यता के तालू आदि का ध्या न होने पर वेद के शब्दों की उपलब्धि सम्भव ही नहीं हो सकती ||३५||
1 [वेदवत् लौकिक वाक्यों में अपौरुषेयत्व की प्रसक्ति] ३६ वीं कारिका में इस पक्ष का परिहार किया गया है कि-पण पूति युक्ति से नित्य है, मीर्फ धक्ता का व्यापार वर्गों के व्यञ्जक पवन का उत्पन्न कर ऋतकार्य हो जाता है। कारिका का अर्थं इस प्रकार है
यदि यह कहा जाय कि-'शरद यद्यपि तालु आदि के अन्वय-प्य तिरेक का अनुविधान करता है तथापि वह अपौरुषेय है, ताटु आदि के व्यापार की अपेक्षा उम को उत्पन्न करने में नहीं होती किन्त उस के व्यक पबन को उत्पन्न करने में होती है। अतः व्यत्रक पवन में बाल आदि के व्यापार के अन्वय-व्यतिरेक का अनुबिधान होने से व्यङ्गाध शब्द में भी उस का व्यवहार हाता है । पतावता उस के अपौरुषेयत्व की हानि नहीं हो सकती ।'-तो इस के प्रतिकार में यह भी कहा जा सकता है कि यदि वर्ण की नित्यता से बंद को अपौरुषेय मानना अभिमत है तब तो लौकिक वाक्य को भी वेदापौरुषेयन्त्रवादी को अपौरुषेय मानना अभिमत होना चाहिये, क्योंकि लौकिकवाक्य में भी वर्णान्मना परिणत होने वाले तथ्य अपरुिषय ही हैं, व भी द्रव्यात्मना नित्य और पर्यायात्मना उत्पत्ति-विनाशशाली हैं, यह बात प्रमाणसिद्ध है। कहने का आशय यह है कि जेनदर्शन में घर्णित युक्तियों से शब्द गौगलिक है, शमवर्गणा के पुदगल द्रव्य ही तालु आदि का व्यापार होने पर वर्णात्मक पर्याय के आस्पद होते हैं, अतः शब्दमात्र मूलपुद्गल के रूप में निस्य और वर्णात्मक पर्याय के रूप में जन्य एवं नश्वर है, अतः वर्गों के मूलस्वरूप की अपौरुपैयता की दृष्टि से वेद और लौकिक चाफ्यों में अपौरुषेयता समान होने से वेद को अपौरुषेय और लौकिक वाक्य को पौरुषेय कहना उचित नहीं है।