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[ शास्त्रवार्ता० १० १० / २४-२५
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दम्यादिपदानामन्यायादावेव शक्तिर्निचिता अथवा दिई रायनगड, असति बाधके शवयार्थ एव च वेदानां प्रामाण्यम् इति वेदादिपदानां बाधकाभावादिशवत्यादिप्रदर्शनार्थाया व्याख्याया उपयोग इति । मैवम् विनिगमकाभावेन लाघवेन च यथामतीति निखिलार्थशक्तित्रहपनायाः पदानां युक्तत्वात्, आवश्यक सङ्केतान्तराश्रयणेनैव लक्षण । नुदात् नियतसंकेतस्या तीन्द्रियार्थं दुर्बहत्वात्, अविशा मप्रसिद्धार्थेऽपि मामाण्याऽप्रच्यवान्, बावकं विनापि च तात्पर्यविशेषेण प्रसिद्धार्थस्त्र परित्यागादर्शनात्, अप्रसिद्धशक्तिकानां वेदपदानां दिन मूलं शक्ति प्रहस्य दुःशकत्वाच्चेति दिग ॥ ३४ ॥ जिस पद के शक्ष्यार्थरूप में प्रसिद्ध नहीं हैं उस में उस की शक्ति के बोधनार्थ अन्य संकेत का आश्रयण करने से ही लक्षणा का अनुच्छेद-सम्बर हो सकता है। कहने का आशय यह है कि अमुक अर्थ में ही अमुक पद की शक्ति है अन्य में नहीं है, ऐसा मानने में कोई त्रिनिगम नहीं है तथा किसी अर्थ में पद की शक्ति और किसी अर्थ में दक्षणा मानने की अपेक्षा सभी अर्थों में पद की शक्ति मानने में लाघव है। अतः यह मानना ही उचित है कि अन्तर केन्द्र यह होता है सर्वे सर्वार्थाचा =सब पत्रों की सब अर्थों में शक्ति होती है । ' कि जिस अर्थ में जिस पद का बहुरता से प्रयोग होता है उस अर्थ में उस पद का नियत संकेत होता है और जिस अर्थ में उस पद का अल्प प्रयोग होता है उस में संकेतान्तर यानी अनियत - आधुनिक संत होता है। जैसे जल के विशिष्ट शह में गङ्गापद का संकेत नियत एवं प्रसिद्ध है और atri घोष इत्यादि स्थानों में तीर में गड़ा पद का संकेत अनियतआधुनिक एवं अप्रसिद्ध है। अप्रसिद्ध अर्थ में पत्र का संकेतान्तर मानने से, जिस अर्थ में जिस पद का संकेत होता है उस अर्थ में वह पद शक्त होता है अथवा वह अर्थ उस पद का शक्य होता है यह क्षण प्रसिद्धसंकेत वाले और अप्रसिद्ध संकेत वाले दोनों में समान रूप से उपपन्न हो जाता है। अतः यह कहना उचित नहीं हो सकता कि अर्थविशेष में वेदस्थों की शक्ति का ज्ञान कराने के लिये वेद की व्याख्या आवश्यक है ।
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[ सर्वज्ञता के विना प्रामाण्य की अनुपपत्ति ]
यह भी ज्ञातव्य है कि वेद यदि संदेश का वचन न होगा तो उस की व्याख्या के आधार पर वह उपादेय न हो सकेगा, क्योंकि अतीन्द्रिय अर्थों में पद के नियत संकेत का ज्ञान gure होने से ऐसे पदों से घटित वेद की व्याख्या सम्भव हो न हो सकेंगी। इस सन्दर्भ में यह कहना उचित नहीं हो सकता कि जैसे अर्थादर्श- अमदेश को किसी प्रमाणविशेष के बिना ही अप्रसिद्ध अर्थ में पद का संकेत ग्रह होता है उसी प्रकार अतीन्द्रिय अर्थ में भी वेद व्याख्याता को वेदस्थ पत्रों का संकेतग्रह होता है क्योंकि अस को अप्रसिद्ध अर्थ में जो सतह होता है वह भी प्रमाणसूक ही होता है, इसीलिये अप्रसिद्ध अर्थ में असर्वेश की प्रमाणता की हानि नहीं होती। अप्रमिन्द्र अर्थ में असर्वेश को अप्रमाणता तब होती जब उसे वह बिना प्रमाण के ही ग्रहण करता, किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रसिद्ध अर्थ को ग्रहण करने मैं न होने पर तात्पर्यविशेष से प्रसिद्ध अर्थ का परित्याग नहीं किया जाता । इस प्रकार प्रसिद्ध अर्थ का बाघ ही अप्र स अर्थ को स्वीकार करने में प्रमाण बन जाता है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जिन वेवस्थ पदों की शक्ति प्रसिद्ध नहीं है उन पदों का feat मूल आधार के बिना शक्ति अशक्य है अतः स्पष्ट है कि वेद को सर्वशवचन न मानने पर उस का लोकपरिग्रह उपपन्न नहीं हो सकता ||३४||
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